Wednesday 7 December 2011

वेद और विश्वप-शांति Vedas and World Peace

1. हमारे चारों ओर दस्यू जाति के लोग हैं वह यज्ञ नहीं करते कुछ मानते नहीं, वह अन्यवृत व अमानुष हैं । हे शत्रु हन्ता इन्द्र तुम इनका वध करो । (ऋगवेद 10-22-8)
2. इन्द्र तुम यज्ञाभिलाषी हो जो तुम्हारी निन्दा करता है उसका धन आहरत करके तुम प्रश्न होते हो, प्रचुरधन इन्द्र तुम हमें दोनों जांगों के बीच छुपा लो, और शत्रुओं को मार डालो । (ऋगवेद 8-59-10)
3. हे इन्द्र तो समस्त अनआर्यो को समाप्त कर दों । (ऋगवेद 1-5-113)
4. धर्मात्मा लोग अर्धमियों का नाश करने में सदा उधत रहते हैं । (अथर्व वेद 12-5-62)
5. उसकी दोनों आंखे छेद डालो, ह्रदय छेद डालो, आंखे फोड डालो, जीभ को काटो और दांतों का तोड डालो । (अथर्व वेद 5-29-4)

प्रथिष्ट यस्य वीरकर्ममिष्णदनुष्ठितं नु नर्यो अपौहत्पुनस्तदा
यजमान की स्त्री घोड़े के लिंग को पकड़ कर आप ही अपनी योनि में डाल लेवे।
{ यजुर्वेद 23 /20 भाषार्थ श्री महीधर जी }

वृहति यत्कनाया दुहितुरा अनूभूमनर्वा
अर्थात जो प्रजापति का वीर्य पुत्रोत्पादन में समथ्र है ,वह बढ़कर निकला । प्रजापति ने मनुष्यों के हित के लिए रेत ( वीर्य ) का त्याग किया अर्थात वीर्य छौड़ा। अपनी सुंदरी कन्या ( उषा ) के शरीर में ब्रह्मा वा प्रजापति ने उस शुक्र ( वीर्य ) का सेक किया अर्थात वीर्य सींचा । { ऋग्वेद 10/61/5

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