Thursday 22 December 2011

लोकपाल बिलः यह जनता के साथ धोखा है


सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर लिया है. इस मसौदे की एक रोचक जानकारी-अगर कोई व्यक्ति किसी अधिकारी के खिला़फ शिकायत करता है और वह झूठा निकला तो उसे 2 साल की सज़ा और अगर सही साबित होता है तो भ्रष्ट अधिकारी को मात्र 6 महीने की सज़ा. मतलब यह कि भ्रष्टाचार करने वाले की सज़ा कम और उसे उजागर करने वाले की सज़ा ज़्यादा. इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को मुकदमा लड़ने के लिए मुफ्त सरकारी वकील मिलेगा, जबकि उसे भ्रष्ट और खुद को सही साबित करने के लिए शिकायतकर्ता को अपने खर्च पर मुकदमा लड़ना होगा. यह सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का नायाब तरीक़ा है. सरकार ने अपनी नीतियां, मानसिकता और विचारधारा सा़फ कर दी है कि वह भ्रष्टाचार को लेकर कितनी गंभीर है. एक शर्मनाक बयान आया, देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. कौशिक बसु का. उन्होंने कहा कि घूसखोरी को ही वैध बना देना चाहिए. अजीबोगरीब बात यह है कि इंफोसिस के मालिक और देश के जाने-माने उद्योगपति नारायण मूर्ति भी इसका समर्थन करते हैं. अब जब प्रधानमंत्री के इतने क़रीबी अर्थशास्त्री और नारायण मूर्ति जैसे समझदार लोग घूसखोरी की पैरवी करने लगें तो इस देश का क्या होगा, यह शायद ऊपर वाला भी नहीं बता सकता. लेकिन सरकार इन सबसे दो कदम आगे है. पहले उसने सीबीआई को सूचना अधिकार कानून से बाहर कर दिया और अब एक कमज़ोर लोकपाल बनाकर यह बता दिया कि वह, अधिकारी और नेता देश में मौजूद भ्रष्टाचार के साथ खुद को आनंदित महसूस करते हैं, सब मस्त हैं.
सरकार के लोकपाल बिल में टीम अन्ना की मुख्य दलीलों को दरकिनार कर दिया गया. अन्ना हज़ारे ने भूख हड़ताल की घोषणा की है और सरकार ने पूरी दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी है. यह संकेत दिया जा रहा है कि अगर अन्ना नहीं माने तो जो हाल पुलिस ने बाबा रामदेव का किया था, वही अन्ना हजारे का होगा. पिछली बार की तरह जन समर्थन और मीडिया का साथ मिलेगा या नहीं, कहना मुश्किल है, लेकिन एक बात ज़रूर है कि भ्रष्टाचार के मामले में सरकार अब कठघरे में आ गई. सरकार भ्रष्टाचार की हिमायती नज़र आने लगी है. यही वजह है कि लोगों को अब उसकी सही दलीलों पर भी भरोसा नहीं रहा.
देश की जनता लोकपाल इसलिए चाहती है, क्योंकि वह भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी है. लोगों में गुस्सा है. सरकार ने जो लोकपाल बिल तैयार किया है, उससे भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा. हां, इस पर राजनीति ज़रूर होगी. अन्ना हज़ारे की टीम और मीडिया को गुमराह करने के लिए इस मुद्दे पर ज़ोर दिया जा रहा है कि प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में होंगे या नहीं. सरकारी चाल को समझना ज़रूरी है. हैरानी की बात यह है प्रधानमंत्री खुद को लोकपाल के दायरे में रखना चाहते हैं, फिर भी कैबिनेट को यह मंज़ूर नहीं है. प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखना उचित है या नहीं, इस पर विवाद चल रहा है. इस पर दो राय हैं. एक राय यह है कि जिस तरह का लोकपाल अन्ना की टीम चाहती है, उससे संवैधानिक संरचना बिगड़ सकती है. इसलिए देश में प्रजातांत्रिक संस्थाओं के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए. प्रधानमंत्री पर कार्रवाई और उनसे पूछताछ करने का अधिकार किसी भी संस्था को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इससे संसद और कार्यपालिका दोनों पर असर पड़ सकता है, सरकारी कामकाज में बाधा उत्पन्न हो सकती है और देश में अराजकता आ सकती है. इस तर्क में कोई कमी नहीं है. सरकार भी यही राय दे रही है. लेकिन लोगों को सरकार पर भरोसा नहीं रह गया है. दूसरी राय यह है कि अगर प्रधानमंत्री ईमानदार है तो उसे लोकपाल के दायरे में आने में क्या आपत्ति है? लोकतंत्र में जनता की राय सर्वोपरि होती है. जनता पिछले दो सालों से निरंतर नए-नए घोटालों से रूबरू हो रही है. कई घोटालों में मंत्री और नेता जेल में हैं, कई मुख्यमंत्रियों को इस्ती़फा देना पड़ा. कुछ घोटालों में प्रधानमंत्री का नाम भी जोड़ा जा रहा है. लोगों के बीच यह धारणा बन गई है कि सरकार में शामिल सारे लोग और अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. ऐसे में जनधारणा यही है कि जो भी सरकारी पदों पर विराजमान है, उसे लोकपाल के दायरे में होना चाहिए, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो.
लोकपाल बिल के क़ानून बनने से पहले इस पर राजनीति होगी. प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से जानबूझ कर बाहर रखा गया है, ताकि मीडिया और लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार से हट जाए. पहला सवाल तो यह है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल के पक्ष में नहीं है तो फिर प्रधानमंत्री या फिर जजों को इसके दायरे में लाने या न लाने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है. हां, खतरा तो तब खड़ा होता जब सरकार एक सर्वशक्तिमान लोकपाल बनाती और फिर कहती कि इसके दायरे में प्रधानमंत्री को लाना उचित नहीं है. आगे आने वाले दिनों में रामदेव की ही तरह अनशन भी होगा और फिर सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लेने के लिए बातचीत करेगी, प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा और पूरे मामले को संसद की स्टैंडिंग कमेटी के सुपुर्द कर दिया जाएगा. सरकार इस तरह विपक्ष को शांत कर सकेगी और टीम अन्ना के लोगों भी लगेगा कि उन्होंने लड़ाई जीत ली. इन सबके बावजूद सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसके जरिए भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता है.
सरकारी लोकपाल बिल के तहत अगर कोई व्यक्ति किसी अधिकारी के खिला़फ शिकायत करता है और वह झूठा निकला तो उसे 2 साल की सज़ा और अगर सही साबित होता है तो भ्रष्ट अधिकारी को मात्र 6 महीने की सज़ा. इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को मुकदमा लड़ने के लिए मुफ्त सरकारी वकील मिलेगा, जबकि उसे भ्रष्ट और खुद को सही साबित करने के लिए शिकायतकर्ता को अपने खर्च पर मुकदमा लड़ना होगा. यह सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का कैसा नायाब तरीक़ा है?
क़ानून बनने या लोकपाल बनने से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा. लोकपाल बनाने का मक़सद तो यही होना चाहिए कि जो भी भ्रष्टाचार में लिप्त है, उसे सज़ा मिले और वह बच न पाए. इसकी ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि अब तक भ्रष्टाचार करने वाले लोग क़ानून को चकमा देने में कामयाब रहे हैं. जिन लोगों को सज़ा मिली है, उन्हें हम अपवाद मान सकते हैं. अन्ना हज़ारे के आंदोलन के बाद 10 लोगों की संयुक्त समिति बनी. कई बैठकों के बाद सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, लेकिन कुछ मुद्दों पर सरकार और अन्ना हज़ारे की टीम के बीच मतभेद थे, जो आज भी बरक़रार हैं. सरकार के मसौदे के मुताबिक़, लोकपाल के 9 सदस्य होंगे. सुप्रीम कोर्ट के किसी कार्यरत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश को इसका चेयरमैन बनाया जाएगा. इनमें से आधे न्यायिक सदस्य होंगे, जिन्हें चुनने के लिए सरकार ने एक टीम बनाई है, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष, एक कैबिनेट मंत्री (जिसे प्रधानमंत्री चुनेंगे), एक सुप्रीम कोर्ट के जज, एक हाईकोर्ट के जज, एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता और एक प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हैं.
यही लोकपाल के चेयरमैन और सदस्यों को चुनेंगे. अब एक सवाल उठता है कि इनमें से जितने भी लोग हैं, उसमें सरकारी पक्ष का पलड़ा भारी दिखाई देता है. खतरा इस बात का है कि इनके द्वारा चुने गए लोकपाल भी राजनीति का शिकार हो सकते हैं, जैसा कि सीवीसी के साथ हुआ. इस लोकपाल को ग्रुप ए के अधिकारियों, मंत्रियों और सांसदों (संसद के बाहर के मामलों में) की जांच करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन किसी को सज़ा देने का हक़ नहीं है. यह सुप्रीम कोर्ट को सज़ा के लिए सुझाव दे सकता है, लेकिन मंत्रियों के मामले में यह भी नहीं कर सकता. अन्ना हजारे की टीम लोकपाल को सज़ा देने के अधिकार के पक्ष में थी और साथ ही वह सीवीसी और सीबीआई को लोकपाल में जोड़ने की बात कहती आई है. सरकार ने अन्ना की टीम के सुझावों को दरकिनार कर दिया.
टीम अन्ना का कहना है कि यह लोकपाल नहीं, जोकपाल है. सरकारी लोकपाल के दायरे में निचले स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों का भ्रष्टाचार शामिल नहीं होगा. नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा. एक और पेंच है. सरकारी लोकपाल के दायरे में वैसा कोई मामला नहीं आएगा, जो 7 साल से ज़्यादा पुराना है. मतलब यह कि बोफोर्स और चारा घोटाला जैसे मामले इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर दिए गए हैं.
टीम अन्ना के लोगों का कहना है कि यह लोकपाल नहीं, जोकपाल है. जनता के साथ किया गया एक मज़ाक़ है. उनकी दलील है कि रिश्वत़खोरी से पीड़ित आम आदमी की शिकायतें लोकपाल नहीं सुनेगा. सरकारी लोकपाल के दायरे में निचले स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों का भ्रष्टाचार शामिल नहीं होगा. नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा, राज्य सरकारों का भ्रष्टाचार भी इसके दायरे में नहीं आएगा. टीम अन्ना की तऱफ से यह कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों का भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है. इसका मतलब यह है कि 2-जी स्पेक्ट्रम, कैश फॉर वोट, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी और येदियुरप्पा के खनन जैसे घोटालों के खिला़फ सरकारी लोकपाल कुछ नहीं कर सकेगा. सरकार ने एक और पेंच लगा दिया है. सरकारी लोकपाल के दायरे में वैसा कोई मामला नहीं आएगा, जो 7 साल से ज्यादा पुराना है. मतलब यह कि बोफोर्स और चारा घोटाला जैसे मामले इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर दिए गए हैं. लोकपाल के सदस्यों को ही सारा काम करना होगा. यानी सब कुछ 9 सदस्य करेंगेअ़फसरों के पास निर्णय लेने के अधिकार नहीं होंगे, इससे सारा का सारा काम दो-तीन महीने में ही ठप हो जाएगा. टीम अन्ना का आरोप है कि नेता एक अच्छा लोकपाल बिल नहीं ला सकते, क्योंकि अगर एक सख्त लोकपाल कानून बना तो देश के आधे से अधिक नेता दो साल में जेल चले जाएंगे और बाक़ी की भी दुकानदारी बंद हो जाएगी.
सवाल तो यह है कि सरकार सचमुच भ्रष्टाचार से लड़ना चाहती भी है या नहीं. भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इसके स्वरूप को समझना ज़रूरी है. भारत के सरकारी तंत्र में अलग-अलग स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है. सरकार की समस्या यह है कि वह जिन नीतियों को बढ़ावा दे रही है, जिस विचार को सही मान रही है, असल में वही भ्रष्टाचार की जड़ है. 1991 के बाद से भारत में भ्रष्टाचार का स्वरूप बदल गया है. जबसे देश में उदारवाद और निजीकरण का दौर चला है, तबसे हमने उद्योग जगत के जानवरों को समाज में लूट मचाने की खुली छूट दे दी है. पिछले बीस साल का इतिहास यही बताता है कि कॉरपोरेट जगत भ्रष्टाचार का केंद्र बन चुका है. बड़े-बड़े उद्योगों ने अपने मुना़फे के लिए न स़िर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, बल्कि पूरे सरकारी तंत्र को दूषित कर दिया. मनमोहन सिंह की उदारवादी नीतियों ने न स़िर्फ कोटा राज और लाइसेंस राज को खत्म किया, बल्कि उद्योगों पर लगने वाले टैक्स को कम कर दिया. उद्योग जगत पर लगने वाले टैक्स इंदिरा गांधी के शासनकाल की तुलना में आज स़िर्फ एक तिहाई हैं. उदारवाद की नीतियां इसलिए लागू की गई थीं कि उद्योग जगत टैक्स चोरी नहीं करेगा, भारत की अर्थव्यस्था में मौजूद काले धन और कालाबाज़ारी में कमी आएगी. हैरानी की बात यह है कि 1991 में उदारवाद की नीतियां लागू करने से पहले काला धन 27 फीसदी था, लेकिन आज यह ब़ढकर 43 फीसदी पहुंच चुका है. भ्रष्टाचार की स्थिति इतनी गंभीर है कि भारत सरकार को देश के 57 फीसदी मुना़फे का पता ही नहीं चल पाता है. एक आंकड़े के मुताबिक़, भारत में हर साल 35 लाख करोड़ रुपये काला धन बनते हैं, जिसका स़िर्फ 10 फीसदी हिस्सा विदेश भेज दिया जाता है. उदारवाद की नीतियां इस संदर्भ में पूरी तरह विफल रही हैं. मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद सरकार ने आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया है, वही भ्रष्टाचार की मुख्य वजह है. यही उद्योग जगत भारत के आर्थिक विकास के एक आंकड़े (जिसे हम जीडीपी कहते हैं) को मज़बूती देता है. हमारी सरकार को आंकड़ों से इतना प्यार है कि इसके लिए उसने देश की जनता को लूटने वाले उद्योगों को खुली छूट दे रखी है.
1991 में उदारवाद की नीतियां लागू करने से पहले काला धन 27 फीसदी था. आज यह 43 फीसदी हो गया है. भारत सरकार को देश के 57 फीसदी मुना़फे का पता ही नहीं चल पाता है. एक आंकड़े के मुताबिक़, भारत में हर साल 35 लाख करोड़ रुपये काला धन बनते हैं, जिसका स़िर्फ 10 फीसदी हिस्सा विदेश भेजा जाता है. मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद सरकार ने आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया है, वही भ्रष्टाचार की मुख्य वजह है.
विभिन्न राजनीतिक दल, नेता और अधिकारी भ्रष्टाचार के इस भयंकर खेल में एक छोटे खिलाड़ी बन गए हैं, पालतू जीव की तरह बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कठपुतली बन गए हैं. येदियुरप्पा को ले लीजिए. कर्नाटक के लोकायुक्त ने कहा कि खनन घोटाले से राज्य को क़रीब 16 हज़ार करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ. येदियुरप्पा को क्या मिला, सिर्फ 10 करोड़. उद्योगपति 16 हजार करोड़ रुपये का मुना़फा कमा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री को मिला स़िर्फ 10 करोड़! यह तो भीख की राशि से भी कम है. इसी तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को देखिए. सीएजी के मुताबिक़, इस घोटाले से भारत सरकार को एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ. अब कोर्ट में ए राजा के खिला़फ मामला चल रहा है 200 करोड़ रुपये का. अब यह समझ में नहीं आता कि केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर ऐसा क्या दबाव है, जिसकी वजह से वे इन उद्योगपतियों के सामने झुक जाते हैं. सरकार के दृष्टिकोण में ही समस्या है, वह भ्रष्टाचार को खत्म ही नहीं करना चाहती.
देश की जनता का भ्रष्टाचार से रोज सामना होता है. बीडीओ, तहसीलदार, जिला मजिस्ट्रेट, स्कूल, थाना, अस्पताल, कचहरी यानी किसी भी सरकारी विभाग के दफ्तर में घुसते ही आपको पता चल जाएगा कि हमारा सरकारी तंत्र किस तरह भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है. देश के मंत्रियों और नेताओं की आंखों को यह सब नज़र नहीं आता है, लेकिन यह यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है. अगर सरकार भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल लाना चाहती है तो सबसे पहले उसे ग्रास रूट लेवल पर मौजूद भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा. यह करना आसान भी है, लेकिन सरकार ने क्या किया? सरकार ने लोकपाल को ज़मीनी स्तर पर मौजूद भ्रष्टाचार से दूर रख दिया. वैसे एक बात माननी पड़ेगी कि यूपीए सरकार की योजनाओं की वजह से भ्रष्टाचार ने अब पंचायत और गांवों तक अपनी पैठ बना ली है. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना हो, मनरेगा हो या फिर जन वितरण प्रणाली, अब गांव वाले भी भ्रष्टाचार में भागीदारी कर रहे हैं. सरकार को अपनी योजनाओं के सही कार्यान्वयन के लिए मजबूत लोकपाल बनाना चाहिए था. सरकार की मानसिकता पर इसलिए सवाल उठता है, क्योंकि ज़मीनी स्तर के भ्रष्टाचार से लोकपाल को बाहर रखा गया और बहाना बनाया गया कि यह राज्यों का विषय है. यह दलील न तो उचित है और न तर्कसंगत. दूसरा सवाल यह है कि सीबीआई को लोकपाल से बाहर रखने का क्या मकसद है? इसके अलावा यह कि अगर कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिला़फ आवाज़ बुलंद करता है या उसकी जानकारी लोकपाल को देता है तो उसे इस क़ानून के तहत क्या सुरक्षा मिली है? ऐसे लोगों को सुरक्षा न देकर सरकार ने भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई में जनता की हिस्सेदारी खत्म करने की कोशिश की है. अगर सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रति गंभीर होती तो एक मज़बूत लोकपाल बनाती. सीबीआई की एंटी करप्शन ब्रांच को लोकपाल को सौंप देती, जांच के लिए ज़रूरी सारे संसाधन मुहैया कराती. लोकपाल अगर मानवाधिकार आयोग की तरह एक दंतहीन, विषहीन संस्था बनता है तो फिर भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई में इसका कोई योगदान नहीं होने वाला है.
संसद, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका पर संविधान और देश के प्रजातंत्र को बचाने की ज़िम्मेदारी है. आज हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ सालों में इन तीनों संस्थाओं ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में चूक की है. उसी चूक की वजह से भ्रष्टाचार ने पूरे सरकारी तंत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. भ्रष्टाचार के खिला़फ सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई से लोगों में आशा जगी है. मीडिया, रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोग यह आशा जगाते हैं कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. सरकार में विद्वान लोग हैं, क़ानून और अर्थशास्त्र के ज्ञाता हैं, भ्रष्टाचार को समझने और पकड़ने का हुनर इनसे ज्यादा किसी के पास नहीं है. फिर भी जब पी जे थामस के पक्ष में बयान आते हैं, जब ए राजा को निर्दोष बताया जाता है, जब थलसेना अध्यक्ष के खिला़फ साज़िश होती है, जब अदालत प्रधानमंत्री कार्यालय और सरकार को हल़फनामा दाखिल करने का आदेश देती है, जब घोटालों में बड़े-बड़े नेताओं और उनके परिवार के लोगों के नाम आते हैं तो देश के हर नागरिक का विश्वास हिल जाता है. जनता का विश्वास बचाए रखने की सबसे पहली ज़िम्मेदारी सरकार की है. डर इस बात का है कि कहीं सरकार से चूक न हो जाए!

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