Thursday 22 December 2011

अपनी मदद आप से ही बच पायेगी की छबि


मुख्तलिफ लोगों ने अपने हिसाब से भारतीय मुसलमानों की मुख्तलिफ छबियां बनाई हैं।
इनमें से ज्यादातर छवियां मीडिया द्वारा प्रचारित-प्रसारित हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के जाने-माने अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह के मत में एक सामान्य मुसलमान वह है जिसके 8-10 बच्चे होते हैं, वह बनियान-लुंगी पहन कर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ पर पान की पीक थूकता नजर आएगा। एक अन्य लेखिका तवलीन सिंह के विचार में एक सामान्य मुसलमान रूढ़िवादी होता है।
अमेरिका और कुछ बड़े मीडिया घरानों की मुसलमानों के बारे में यह धारणा है कि वे सभी बिन लादेन, बाबर, मुल्ला उमर, मौलाना मसूद अजहर और इनके द्वारा प्रचारित आतंकवाद की हिमायत करने वाले हैं। संघ परिवार के लोग तो मुसलमानों की तुलना गद्दारों से करते हैं और उन्हें देशभक्त नहीं मानते।
मीडिया का ही एक हिस्सा एक आम मुसलमान के बारे में ऐसा मानता है कि वह भोजन में नमक अधिक होने पर, पत्नी के साड़ी पहन लेने पर, किसी बात पर जरा सा गुस्सा आने पर उसे तुरंत प्रताड़ित कर तलाक दे देता है। वह परिवार नियोजन में विश्वास नहीं रखता, घेटो (एक अलग-थलग बस्ती) में रहने वाले लोगों जैसी मानसिकता रखता है, आधुनिक शिक्षा से दूर रहता है, वंदे मातरम् का विरोध करता है, बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण, सलमान रश्दी, तस्लीमा नसरीन के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। मुसलमानों की एक और छवि यह बनाई गई है कि वे अपनी अंधेरी, बदबूदार, जर्जर बस्तियों में रहना पसंद करते हैं। उनके बच्चे गलियों की कीचड़-मिट्टी में लोटते रहते हैं और गुल्ली-डंडा या प्लास्टिक की गेंद से क्रिकेट खेलते रहते हैं। मुसलमानों के बारे में मीडिया की बनाई गई छवियों में से एक छवि यह है कि वे अपनी औरतों और बच्चियों को आधुनिक तो क्या, प्राचीन शिक्षा भी देना पसंद नहीं करते है। वे औरतों को अपने समाज में कोई हक नहीं देते, जिससे मुस्लिम महिलाएं लाचारी का जीवन बिताती हैं। मुस्लिम पुरुष जब चाहते हैं, तब शादी कर लेते हैं और जब चाहते हैं तलाक भी दे देते हैं और यह नहीं सोचते कि तलाक देने से उस औरत का क्या होगा।
इसके अलावा मुसलमानों की एक और छवि यह है कि वे तालिबान, अरब देशों जैसे फलस्तीन, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि के गुणगान में लगे रहते हैं, जबकि इन देशों को भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं। आम मुसलमानों के बारे में एक छवि भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा बनाई गई है। इनके अनुसार सभी मुसलमान अल्पसंख्यकवादी हैं और वे चुनाव में मुस्लिम प्रत्याशी को ही वोट देते हैं। यह भी माना जाता है कि मुसलमान धर्म के आधार पर मतदान करते हैं ।
सचाई यह है कि इन सभी छवियों में से मुसलमान की एक भी छवि नहीं है। मुसलमान की बस एक ही छवि है कि वह टूट कर इस्लाम को चाहने वाला होता है, अपने रसूल से बेपनाह मुहब्बत करता है और अपने धर्म, रसूल पर किसी भी समय मर-मिटने के लिए तैयार रहता है। पर एक सही बात यह भी है कि इन बनी-बनाई छवियों के आधार पर भारत में बसे मुसलमानों का आकलन नहीं हो सकता।
जब देश का विभाजन हो रहा था तो उस समय भारत के बहुलतावादी समाज के समर्थक स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों से एक ऐसा भाषण दिया था कि पाकिस्तान जाने वाले अनेक लोगों ने अपने बिस्तरबंद खोल दिए थे और मौलाना के इस शेर पर लब्बैक कहा था 'जो चला गया उसे भूल जा, हिंद को अपनी जन्नत बना।'
पर यहां रुक जाने और इस वतन को अपना मानने के बावजूद भारतीय मुसलमान को शक की नजर से क्यों देखा जाता रहा है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है
मुसलिम नेताओं और मुल्क की खतरनाक राजनीती के कारण भी आज मुसलमान इतने पिछड़े हुए हैं। अगर मुस्लिम नेता ईमानदारी से अपने समुदाय के नेतृत्व की बागडोर संभालते तो आज मुसलमानों की तुलना समाज के सबसे पिछड़े वर्गों से नहीं होती। एक तो अपने नेताओं की उपेक्षा और दोसरी तरफ मुस्लिम मुखालिफ वातावरण, इन दोनों वजहों से भारतीय मुसलमानों में खीझ बढ़ती गई और वे मुख्य धारा से दूर खिंचते चले गए। इन सारी वजहों के नतीजे में आज भारत का मुसलमान बिखरा-बिखरा सा नजर आता है।
भारतीय मुसलमानों को एक सामान्य मनुष्य व देश के अन्य नागरिकों के समान अधिकारों की मांग और जिम्मेदारियों की पहचान करनी होगी। साथ ही दूसरे धर्मों-समुदायों के लोगों के साथ समानता पर आधारित तालमेल बिठाने की गुंजाइश पैदा करनी होगी, वरना बहुत देर हो जाएगी ।
भारत जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और तरक्की कर रहा है उस तरक्की का भाग्यादर बन्ने की लिए भारतीय मुसलमानों को अब जागना होगा, किसी दोसरे पर भरोसा करने के बजाये अपने आप पर भरोसा करना होगा, दोसरे से मदद की उम्मीद छोड़ कर अपनी मदद आप करनी होगी, इस लिये के दुनिया की तारिख में वही कौमें कामियाब होती हैं जो अपनी मदद आप करना जानती हैं।

अब लोकपाल नहीं बनेगा


हमारे देश में सरकारी तंत्र के साथ साथ भ्रष्टाचार का तंत्र भी मौजूद है. यह भ्रष्ट तंत्र देश की जनता को तो नज़र आता है, लेकिन सरकार अंधी हो चुकी है. इसलिए सरकारी तंत्र और भ्रष्ट तंत्र दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं. ड्राइविंग लाइसेंस चाहिए तो सरकार के नियम क़ानून हैं, जिसके ज़रिए आपको लाइसेंस नहीं मिल सकता. आप शुमाकर क्यों न हों, उस टेस्ट को पास ही नहीं कर सकते. लाइसेंस के लिए भ्रष्ट तंत्र मौजूद है. घूस खिलाइए, लाइसेंस आपके घर पर पहुंच जाएगा. रेलवे में आरक्षण करवाना हो तो लाइन में आपकी ज़िंदगी बीत जाएगी, लेकिन सीट नहीं मिलेगी, तत्काल सेवा में भी नहीं. टिकट दलालों को पकड़िए, आपके नाम के साथ टिकट उपल्ब्ध हो जाएगा. आप सरकार के  किसी भी विभाग में जाइए, वहां दो तरह से काम कराए जा सकते हैं. एक सरकार द्वारा बनाया गया क़ायदा क़ानून है और दूसरा रिश्वत देकर वहीं काम कराने का एक और तरीक़ा मौजूद है. देश की जनता का इससे रोज़ाना सामना होता है, इसलिए लोग नाराज़ हैं. सरकार के अधिकारी, नेता, उद्योगपति और वे सारे लोग जो आम आदमी नहीं हैं, इस भ्रष्ट तंत्र के पोषक, वाहक, ग्राहक और उस पर पोषित हैं. कोई भी राजनीतिक दल या सरकार इस भ्रष्ट तंत्र को खत्म नहीं करेगी, क्योंकि यही उनकी जीविका का आधार है, यही उनकी लाइफ लाइन है. यहीं से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए पैसे मिलते हैं. सत्ता का हर हिस्सेदार व्यक्ति या संस्थान इस यथास्थिति को बरक़रार रखना चाहता है. हमारे देश का भ्रष्ट तंत्र इतना मज़बूत है कि प्रजातंत्र का ब्रह्मास्त्र भी इस पर कोई असर नहीं छोड़ पाता है. देश की जनता ने कई भ्रष्ट सरकारों को सत्ता से बाहर तो किया, लेकिन भ्रष्टाचार की सत्ता को खत्म नहीं कर सकी. मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि वे सरकार के समानांतर कोई ढांचा खड़ा नहीं कर सकते. समझने वाली बात यह है कि मंत्री जी को सिविल सोसायटी के लोग समानांतर ढांचा ख़डा करते नज़र आते हैं, लेकिन देश में पहले से ही भ्रष्टाचार का जो समानांतर ढांचा ख़डा है, वह उन्हें नज़र नहीं आता. इसे खत्म करने की ज़िम्मेदारी किसकी है? देश के ढाई सौ से ज़्यादा ज़िलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, उसके बारे में सरकार के पास क्या जवाब है?
जिस बात का डर था, वही सच होने जा रहा है. देश में अब एक सशक्त और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाला लोकपाल नहीं बनेगा. इसके लिए सरकार, कांग्रेस पार्टी, विपक्षी पार्टियां और अन्ना हज़ारे ज़िम्मेदार हैं. इन सब से ग़लतियां हुई हैं. ऐसी ग़लतियां जिसे देश की जनता कभी मा़फ नहीं करेगी. लोकपाल के नाम पर देश में जो राजनीतिक वातावरण बना है वह बॉक्सिंग से कम नहीं है. जिसे जहां मौक़ा मिलता है, पंच मार कर देता है. कांग्रेस अन्ना हज़ारे को कभी आरएसएस का एजेंट बताती है तो कभी तानाशाह. अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगी सरकार को धोखेबाज़ और झूठा बताते हैं. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में अलग तू-तू, मैं-मैं चल रही है. देश की जनता भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म होते देखना चाहती है. अ़फसोस इस बात का है कि यह मूल मुद्दा ही इन लोगों के एजेंडे में नहीं है. ये सब होशियार लोग हैं. ये कालीदास नहीं हैं कि जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही काटने लग जाएं.
लोकपाल का क़ानून बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है. सरकार का कहना है कि 30 जून तक सख्त लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो जाएगा. लेकिन सरकार और उनके  मंत्रियों का जो रवैया है उससे यही लगता है कि वे लोकपाल तो बनाना चाहते हैं, मगर वह मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और महिला आयोग के अध्यक्ष की तरह दंतहीन, विषहीन लोकपाल बनाना चाहते हैं. जो प्रधानमंत्री, जजों, बड़े अधिकारियों और सांसदों को भ्रष्टाचार में लिप्त होते तो देख सकता है, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. आज सरकार और कांग्रेस पार्टी कठघरे में खड़ी दिखाई पड़ती है. यही वजह है कि अन्ना हज़ारे ने फिर से अनशन का ऐलान किया है. यह बेहद अ़फसोसजनक स्थिति है कि जनता की नज़रों में सरकार और कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार की समर्थक बन गई है. वजह भी सा़फ है, पिछले एक साल से घोटालों के सामने आने का जो दौर शुरू हुआ है वह थमता दिख नहीं रहा है. सुप्रीम कोर्ट की वजह से यूपीए के दूरसंचार मंत्री ए राजा जेल में हैं. गठबंधन के महत्वपूर्ण घटक के नेता करुणानिधि की बेटी कनीमोई जेल में है. कांग्रेस पार्टी के नेता और कॉमनवेल्थ महालूट के अधिनायक कलमा़डी जेल में हैं. जो भी जांच रिपोर्ट आ रही है उसमें सरकार और कांग्रेस के लोगों का नाम आ रहा है. एक तऱफ रामदेव और अन्ना हज़ारे भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ रहे हैं. लोकपाल पर बहस हो रही है, इस बीच यूपीए के दूसरे मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन पर तलवार लटक रही है. भारतीय जनता पार्टी अब होम मिनिस्टर पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पैसे लेने का आरोप लगा रही है और पी. चिदंबरम का इस्ती़फा मांग रही है. इन सबके बीच सरकार और कांग्रेस पार्टी द्वारा दी गई सारी दलीलें बेमानी लगती हैं. जनता का विश्वास उठ गया है.
लोकपाल का क़ानून बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है. सरकार के मुताबिक़ 30 जून तक सख्त लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो जाएगा. लेकिन उसके रवैये से यही लगता है कि वे लोकपाल तो बनाना चाहते हैं, मगर उसे मानवाधिकार और महिला आयोग के अध्यक्ष की तरह दंतहीन, विषहीन लोकपाल बनाना चाहते हैं. जो प्रधानमंत्री, जजों, बड़े अधिकारियों और सांसदों को भ्रष्टाचार में लिप्त होते तो देख सकता है, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. आज सरकार और कांग्रेस पार्टी कठघरे में खड़ी दिखाई पड़ती है.
लोकपाल को लेकर सिविल सोसायटी और सरकार के बीच प्रधानमंत्री के नाम पर गुत्थम-गुत्थी हो रही है. सिविल सोसायटी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना चाहती है, लेकिन सरकार के प्रतिनिधि इसके खिला़फ हैं. इससे कई सवाल खड़े होते हैं. प्रणब मुखर्जी एनडीए सरकार के दौरान लोकपाल बिल बनाने वाली कमेटी का नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने जो बिल तैयार किया, उसमें प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में रखा. उस व़क्त अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. उन्होंने भी आपत्ति दर्ज नहीं की. अब ऐसी क्या बात हो गई कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से अलग रखना चाहते हैं. इस सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी को देश की जनता को देना चाहिए. पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसे काम किए हैं, जिससे सरकार की दलीलें कमज़ोर हो गई हैं. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का मामला जब सामने आया तो प्रधानमंत्री ने ए राजा को मंत्रिमंडल से ब़र्खास्त करने के बजाए उनका बचाव किया था. फिर सीवीसी की नियुक्ति के मामले में भी मनमोहन सिंह का रु़ख कई सवालों को खड़ा करता है. सीवीसी को नियुक्त करने वाली कमेटी में तीन सदस्य होते हैं. प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा का नेता प्रतिपक्ष. पी जे थॉमस पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. सीवीसी के लिए तीन नाम थे. लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने पी जे थॉमस के नाम पर आपत्ति जताई थी. उन्होंने यह कहा था कि पी जे थॉमस के अलावा किसी को भी ची़फ विजिलेंस कमिश्नर बनाया जा सकता है. इस आपत्ति को दरकिनार करके मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम ने पी जे थॉमस को सीवीसी बना दिया. क्या इसमें प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी नहीं बनती है. फिर इसरो का केस सामने आया. इसरो ने एक कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए नियम क़ानून तोड़ डाले. प्रधानमंत्री पर एक नया सवाल खड़ा हो गया, क्योंकि इसरो प्रधानमंत्री के पास है. इस मामले में क्या कार्रवाई हुई, यह किसी को पता नहीं है. कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर मची लूट पर भी सरकार ने कुछ नहीं किया. आखिरकार सरकार को खेल समय पर कराने की पूरी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी थी. कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई गड़बड़ियों को पकड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने शुंगलु कमेटी का गठन किया था. उसकी रिपोर्ट भी आ गई. कई बड़े-बड़े राजनीतिक अधिकारियों पर सवाल खड़ा हुआ, लेकिन किसी पर कार्रवाई नहीं हुई है. दयानिधि मारन का नाम अब सामने आया है, लेकिन प्रधानमंत्री चुप हैं. सवाल यह है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी ने क्या मंत्रिमंडल की सामूहिक ज़िम्मेदारी के सिद्धांत को भुला दिया है. देश में कई योजनाएं चल रही हैं, जिसकी सीधी ज़िम्मेदारी कैबिनेट सचिवालय की है. इन योजनाओं में घोर भ्रष्टाचार चल रहा है, इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? देश में रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय की ग़लतियों की वजह से देश के बैंकों से नक़ली नोट निकल रहे हैं. प्रधानमंत्री की नाक के नीचे से लाखों करोड़ रुपए का कोयला घोटाला हो जाता है और कोई सुगबुगाहट भी नहीं होती है. शिबु सोरेन के जाने के बाद कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था. यह बात भी याद रखने की ज़रूरत है, ये सब घोटाले मीडिया की वजह से सामने आए. भ्रष्टाचार की कहानी स़िर्फ चंद मंत्रालयों तक ही सीमित नहीं है. मीडिया देश के कई मंत्रालयों के कारनामों से वाक़ि़फ है, लेकिन ठोस सबूत की कमी के कारण मामले दबे पड़े हैं.
जिस देश में संसद सदस्य पैसे लेकर सवाल पूछते हों. समर्थन के लिए जहां विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त ती हो. जहां पैसे देकर लोकसभा में समर्थन खरीदा जाता हो, गठबंधन सरकार बनाने के नाम पर ब्लैकमेलिंग और सौदेबाज़ी होती हो, जहां नीरा राडिया जैसी मीडिया मैनेजर यह तय करती हो कि मंत्री कौन बनेगा तो उस देश के मंत्री को संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देने का क्या अधिकार है?
अन्ना हज़ारे फिर से अनशन पर बैठेंगे, क्योंकि सरकार जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहती है उससे वह संतुष्ट नहीं हैं. कांग्रेस इसे धमकी बता रही है. कांग्रेस अन्ना की टीम के रवैये को ग़ैर लोकतांत्रिक बताती है. कांग्रेस का मानना है कि यह निर्वाचित सरकार को धमकाने जैसा है, लेकिन आमरण अनशन या दबाव के ज़रिये संसद से उसका अधिकार नहीं छीना जा सकता. कपिल सिब्बल केंद्रीय मंत्री के  साथ-साथ देश के जाने माने वकील हैं. क़ानून की समझ उनसे ज़्यादा किसे हो सकती है. यही वजह है कि वह सिविल सोसायटी के रु़ख पर सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं कि उनकी अनेक मांगें ऐसी हैं जिन पर सरकार अकेले निर्णय नहीं कर सकती, क्योंकि देश में संसदीय लोकतंत्र है और हर क़ानून बनाने का हक़ संसद को है. सिविल सोसायटी सरकार का हिस्सा नहीं है और वह सरकार को निर्देशित भी नहीं कर सकती. क़ानून के नज़रिए से कांग्रेस पार्टी की दलील सही है, लेकिन सवाल यह है कि सरकार को धमकाने की स्थिति आखिर क्यों पैदा हुई? चुनी हुई सरकार से लोगों का विश्वास क्यों उठ गया? संसद से उसका अधिकार छीने जाने का सवाल क्यों उठ खड़ा हुआ है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? जिस देश में संसद सदस्य पैसे लेकर सवाल पूछते हों. समर्थन के लिए जहां विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त होती हो. जहां पैसे देकर लोकसभा में समर्थन खरीदा जाता हो, गठबंधन सरकार बनाने के नाम पर ब्लैकमेलिंग और सौदेबाज़ी होती हो, जहां नीरा राडिया जैसी मीडिया मैनेजर यह तय करती हो कि मंत्री कौन बनेगा तो उस देश के मंत्री को संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देने का क्या अधिकार है? जिस देश में उम्मीदवार बनने के लिए अपनी ही पार्टी को घूस देनी पड़े, वोट लेने के लिए पैसे बांटने पड़े, जेल में बंद लोग भी धनबल और बाहुबल के सहारे जनप्रतिनिधि चुन लिए जाते हों. जिस देश में अपराधियों को टिकट देने की राजनीतिक दलों में होड़ लगी हो, तो ऐसे सांसदों को प्रजातंत्र का ध्वजवाहक कैसे माना जाए? भारत पर कांग्रेस पार्टी का शासन पचास साल रहा. क्या इस दुर्दशा के लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार नहीं है. क्या ऐसी संसद और ऐसे संसद सदस्य इस देश के प्रजातंत्र के लिए खतरा नहीं हैं? अन्ना हजारे और उनकी टीम को ग़ैर निर्वाचित तानाशाह बताने से पहले देश की जनता यह जानना चाहेगी कि जो निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, वो कौन सा तीर मार रहे हैं?
अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के लोगों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी का सदस्य नहीं बनना चाहिए था. इससे अन्ना की साख भी बढ़ती और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अन्ना को जो लोग गांधी बता रहे हैं, उन्हें यह भी पता करना चाहिए कि गांधी कभी किसी क़ानूनी कमेटी के सदस्य नहीं रहे. गांधी ने आंदोलन किया और समझौता वार्ता विशेषज्ञों पर छोड़ दी. अन्ना, गांधी के इस फलस़फे को समझ नहीं पाए. जो ग़लती रामदेव ने की, वही ग़लती अन्ना हज़ारे ने की है. वह यह भी नहीं समझ सके कि राजनीतिक दलों से लड़ने के लिए राजनीति आनी चाहिए.
लोकपाल के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियों का रु़ख भी सवालों के घेरे में है. भारतीय जनता पार्टी और वाममोर्चा ने शायद विपक्षी राजनीति के दर्शन को ही भुला दिया है. जो काम अन्ना हज़ारे और रामदेव कर रहे हैं वह असल में विपक्षी पार्टियों का काम है. वामदल चुनाव में बंगाल और केरल क्या हार गया, लगता है कोमा में चला गया है. उसने सारे राष्ट्रीय मुद्दों पर चुप्पी साध ली है. देश की जनता आंदोलित है, लेकिन विपक्ष उसे नेतृत्व देने में नाकाम साबित हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पार्टी से अपना हिसाब बराबर करने में लगी है. दोनों तऱफ से ऐसे-ऐसे बयान दिए जा रहे हैं, जो राजनीति के  गिरते स्तर को चिन्हित कर रहे हैं. इन पार्टियों को समझना चाहिए कि इससे लोगों का विश्वास और मनोबल टूटता है. लोकपाल को लेकर भारतीय जनता पार्टी का क्या पक्ष है, इसे लेकर देश की जनता अंधेरे में है. यही वजह है कि अन्ना जैसे लोग जब भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन करते हैं तो समर्थन मिलता है. अन्ना और रामदेव लोगों में आशा जगाते हैं, वहीं राजनीतिक दल घनघोर निराशा के पर्याय बन चुके हैं. अगर सारी विपक्षी पार्टियां एक सशक्त और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाले लोकपाल का खुला समर्थन करतीं तो सरकार की हिम्मत नहीं होती कि वह इसे टाल सके.
अगर लोकपाल नहीं बनता है तो इसके लिए अन्ना हज़ारे और उनकी टीम भी ज़िम्मेदार होगी. अन्ना हज़ारे और उनके साथियों का लक्ष्य जन लोकपाल बिल को लागू कराना नहीं, बल्कि उसका श्रेय लेना है. उनके पास भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल के अलावा कोई दूसरा तरीक़ा नहीं है. उनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं है. विचारधारा नहीं है. क्या एक ही परिवार से दो सदस्यों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी में शामिल करना ग़लत नहीं है? क्या इस देश में क़ानून के जानकारों की कमी है? यह कहना कि जन लोकपाल बिल हमने बनाया है और इसे कोई दूसरा समझ नहीं सकता, यह बात भी ग़लत है. अगर देश में लोकपाल बनेगा तो वह अन्ना हज़ारे नहीं बनाएंगे. संसद में बिल को पास किया जाएगा. अन्ना की टीम अगर जन लोकपाल बिल को ज्वाइंट कमेटी में पास भी करा लेती है, फिर भी इस पर संसद ही फैसला करेगी. वहां अलग-अलग राजनीतिक दल हैं. जिस तरह से अन्ना की टीम ने सांसदों और नेताओं को आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया, राजनीतिक पार्टियों के खिला़फ बयान देने और सांसदों को भ्रष्ट साबित करने में जुट गई, उससे कांग्रेस के अलावा दूसरे राजनीतिक दल नाराज़ हो गए हैं. क्या अन्ना हज़ारे को यह पता नहीं है कि अगर क़ानून बनेगा तो उसे संसद में बहुमत की ज़रूरत पड़ेगी. सांसदों ने वोटिंग के समय इस नाराज़गी का इज़हार कर दिया तो यह बिल कैसे पास होगा. इसकी रणनीति तो अन्ना हज़ारे को पहले ही बनानी चाहिए. अन्ना हज़ारे को चाहिए था कि आंदोलन की सफलता के बाद वह कमेटी के लिए ऐसे लोगों के नाम आगे करते, जिससे लोकपाल बिल न स़िर्फ तैयार हो जाता, बल्कि संसद में इसे पारित होने की गारंटी भी मिल जाती. अगर इस कमेटी में अरुण जेटली, सीताराम येचुरी, सुब्रमण्यम स्वामी, फाली एस नरीमन और अरविंद केजरीवाल होते तो ये सरकारी प्रतिनिधियों पर न स़िर्फ भारी पड़ते, बल्कि इस बिल को संसद में पास होने की गारंटी भी मिल जाती. यह बात सच साबित हुई है कि अन्ना की टीम सरकार के प्रतिनिधि के  सामने टिक नहीं पाई. अगर जन लोकपाल बिल को लागू कराना मक़सद था तो अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के लोगों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी का सदस्य नहीं बनना चाहिए था. इससे अन्ना की साख भी बढ़ती और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अन्ना को जो लोग गांधी बता रहे हैं, उन्हें यह भी पता करना चाहिए कि गांधी कभी किसी क़ानूनी कमेटी के सदस्य नहीं रहे. गांधी ने आंदोलन किया और समझौता वार्ता विशेषज्ञों पर छोड़ दी. अन्ना, गांधी के इस फलस़फे को समझ नहीं पाए. जो ग़लती रामदेव ने की, वही ग़लती अन्ना हज़ारे ने की है. वह यह भी नहीं समझ सके कि राजनीतिक दलों से लड़ने के लिए राजनीति आनी चाहिए. प्रजातंत्र के दो पहलू होते हैं-प्रणाली और सिद्धांत. प्रणाली प्रजातंत्र का शरीर है तो सिद्धांत प्रजातंत्र की आत्मा है. प्रजातांत्रिक प्रणाली का आधार है विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, चुनाव आदि संस्थाएं हैं, लेकिन प्रजातंत्र की आत्मा तो जनमत है. अगर आत्मा ही मर जाए तो शरीर का क्या करेंगे. देश का जनमत भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने की किसी भी मुहिम के साथ है. इस देश का दुर्भाग्य है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली को ढाल बनाकर राजनीतिक वर्ग प्रजातंत्र की आत्मा को ही नष्ट करने में जुटा हुआ है.

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लोकपाल बिलः यह जनता के साथ धोखा है


सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर लिया है. इस मसौदे की एक रोचक जानकारी-अगर कोई व्यक्ति किसी अधिकारी के खिला़फ शिकायत करता है और वह झूठा निकला तो उसे 2 साल की सज़ा और अगर सही साबित होता है तो भ्रष्ट अधिकारी को मात्र 6 महीने की सज़ा. मतलब यह कि भ्रष्टाचार करने वाले की सज़ा कम और उसे उजागर करने वाले की सज़ा ज़्यादा. इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को मुकदमा लड़ने के लिए मुफ्त सरकारी वकील मिलेगा, जबकि उसे भ्रष्ट और खुद को सही साबित करने के लिए शिकायतकर्ता को अपने खर्च पर मुकदमा लड़ना होगा. यह सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का नायाब तरीक़ा है. सरकार ने अपनी नीतियां, मानसिकता और विचारधारा सा़फ कर दी है कि वह भ्रष्टाचार को लेकर कितनी गंभीर है. एक शर्मनाक बयान आया, देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. कौशिक बसु का. उन्होंने कहा कि घूसखोरी को ही वैध बना देना चाहिए. अजीबोगरीब बात यह है कि इंफोसिस के मालिक और देश के जाने-माने उद्योगपति नारायण मूर्ति भी इसका समर्थन करते हैं. अब जब प्रधानमंत्री के इतने क़रीबी अर्थशास्त्री और नारायण मूर्ति जैसे समझदार लोग घूसखोरी की पैरवी करने लगें तो इस देश का क्या होगा, यह शायद ऊपर वाला भी नहीं बता सकता. लेकिन सरकार इन सबसे दो कदम आगे है. पहले उसने सीबीआई को सूचना अधिकार कानून से बाहर कर दिया और अब एक कमज़ोर लोकपाल बनाकर यह बता दिया कि वह, अधिकारी और नेता देश में मौजूद भ्रष्टाचार के साथ खुद को आनंदित महसूस करते हैं, सब मस्त हैं.
सरकार के लोकपाल बिल में टीम अन्ना की मुख्य दलीलों को दरकिनार कर दिया गया. अन्ना हज़ारे ने भूख हड़ताल की घोषणा की है और सरकार ने पूरी दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी है. यह संकेत दिया जा रहा है कि अगर अन्ना नहीं माने तो जो हाल पुलिस ने बाबा रामदेव का किया था, वही अन्ना हजारे का होगा. पिछली बार की तरह जन समर्थन और मीडिया का साथ मिलेगा या नहीं, कहना मुश्किल है, लेकिन एक बात ज़रूर है कि भ्रष्टाचार के मामले में सरकार अब कठघरे में आ गई. सरकार भ्रष्टाचार की हिमायती नज़र आने लगी है. यही वजह है कि लोगों को अब उसकी सही दलीलों पर भी भरोसा नहीं रहा.
देश की जनता लोकपाल इसलिए चाहती है, क्योंकि वह भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी है. लोगों में गुस्सा है. सरकार ने जो लोकपाल बिल तैयार किया है, उससे भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा. हां, इस पर राजनीति ज़रूर होगी. अन्ना हज़ारे की टीम और मीडिया को गुमराह करने के लिए इस मुद्दे पर ज़ोर दिया जा रहा है कि प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में होंगे या नहीं. सरकारी चाल को समझना ज़रूरी है. हैरानी की बात यह है प्रधानमंत्री खुद को लोकपाल के दायरे में रखना चाहते हैं, फिर भी कैबिनेट को यह मंज़ूर नहीं है. प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखना उचित है या नहीं, इस पर विवाद चल रहा है. इस पर दो राय हैं. एक राय यह है कि जिस तरह का लोकपाल अन्ना की टीम चाहती है, उससे संवैधानिक संरचना बिगड़ सकती है. इसलिए देश में प्रजातांत्रिक संस्थाओं के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए. प्रधानमंत्री पर कार्रवाई और उनसे पूछताछ करने का अधिकार किसी भी संस्था को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इससे संसद और कार्यपालिका दोनों पर असर पड़ सकता है, सरकारी कामकाज में बाधा उत्पन्न हो सकती है और देश में अराजकता आ सकती है. इस तर्क में कोई कमी नहीं है. सरकार भी यही राय दे रही है. लेकिन लोगों को सरकार पर भरोसा नहीं रह गया है. दूसरी राय यह है कि अगर प्रधानमंत्री ईमानदार है तो उसे लोकपाल के दायरे में आने में क्या आपत्ति है? लोकतंत्र में जनता की राय सर्वोपरि होती है. जनता पिछले दो सालों से निरंतर नए-नए घोटालों से रूबरू हो रही है. कई घोटालों में मंत्री और नेता जेल में हैं, कई मुख्यमंत्रियों को इस्ती़फा देना पड़ा. कुछ घोटालों में प्रधानमंत्री का नाम भी जोड़ा जा रहा है. लोगों के बीच यह धारणा बन गई है कि सरकार में शामिल सारे लोग और अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. ऐसे में जनधारणा यही है कि जो भी सरकारी पदों पर विराजमान है, उसे लोकपाल के दायरे में होना चाहिए, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो.
लोकपाल बिल के क़ानून बनने से पहले इस पर राजनीति होगी. प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से जानबूझ कर बाहर रखा गया है, ताकि मीडिया और लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार से हट जाए. पहला सवाल तो यह है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल के पक्ष में नहीं है तो फिर प्रधानमंत्री या फिर जजों को इसके दायरे में लाने या न लाने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है. हां, खतरा तो तब खड़ा होता जब सरकार एक सर्वशक्तिमान लोकपाल बनाती और फिर कहती कि इसके दायरे में प्रधानमंत्री को लाना उचित नहीं है. आगे आने वाले दिनों में रामदेव की ही तरह अनशन भी होगा और फिर सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लेने के लिए बातचीत करेगी, प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा और पूरे मामले को संसद की स्टैंडिंग कमेटी के सुपुर्द कर दिया जाएगा. सरकार इस तरह विपक्ष को शांत कर सकेगी और टीम अन्ना के लोगों भी लगेगा कि उन्होंने लड़ाई जीत ली. इन सबके बावजूद सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसके जरिए भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता है.
सरकारी लोकपाल बिल के तहत अगर कोई व्यक्ति किसी अधिकारी के खिला़फ शिकायत करता है और वह झूठा निकला तो उसे 2 साल की सज़ा और अगर सही साबित होता है तो भ्रष्ट अधिकारी को मात्र 6 महीने की सज़ा. इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी को मुकदमा लड़ने के लिए मुफ्त सरकारी वकील मिलेगा, जबकि उसे भ्रष्ट और खुद को सही साबित करने के लिए शिकायतकर्ता को अपने खर्च पर मुकदमा लड़ना होगा. यह सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का कैसा नायाब तरीक़ा है?
क़ानून बनने या लोकपाल बनने से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा. लोकपाल बनाने का मक़सद तो यही होना चाहिए कि जो भी भ्रष्टाचार में लिप्त है, उसे सज़ा मिले और वह बच न पाए. इसकी ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि अब तक भ्रष्टाचार करने वाले लोग क़ानून को चकमा देने में कामयाब रहे हैं. जिन लोगों को सज़ा मिली है, उन्हें हम अपवाद मान सकते हैं. अन्ना हज़ारे के आंदोलन के बाद 10 लोगों की संयुक्त समिति बनी. कई बैठकों के बाद सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, लेकिन कुछ मुद्दों पर सरकार और अन्ना हज़ारे की टीम के बीच मतभेद थे, जो आज भी बरक़रार हैं. सरकार के मसौदे के मुताबिक़, लोकपाल के 9 सदस्य होंगे. सुप्रीम कोर्ट के किसी कार्यरत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश को इसका चेयरमैन बनाया जाएगा. इनमें से आधे न्यायिक सदस्य होंगे, जिन्हें चुनने के लिए सरकार ने एक टीम बनाई है, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष, एक कैबिनेट मंत्री (जिसे प्रधानमंत्री चुनेंगे), एक सुप्रीम कोर्ट के जज, एक हाईकोर्ट के जज, एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता और एक प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हैं.
यही लोकपाल के चेयरमैन और सदस्यों को चुनेंगे. अब एक सवाल उठता है कि इनमें से जितने भी लोग हैं, उसमें सरकारी पक्ष का पलड़ा भारी दिखाई देता है. खतरा इस बात का है कि इनके द्वारा चुने गए लोकपाल भी राजनीति का शिकार हो सकते हैं, जैसा कि सीवीसी के साथ हुआ. इस लोकपाल को ग्रुप ए के अधिकारियों, मंत्रियों और सांसदों (संसद के बाहर के मामलों में) की जांच करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन किसी को सज़ा देने का हक़ नहीं है. यह सुप्रीम कोर्ट को सज़ा के लिए सुझाव दे सकता है, लेकिन मंत्रियों के मामले में यह भी नहीं कर सकता. अन्ना हजारे की टीम लोकपाल को सज़ा देने के अधिकार के पक्ष में थी और साथ ही वह सीवीसी और सीबीआई को लोकपाल में जोड़ने की बात कहती आई है. सरकार ने अन्ना की टीम के सुझावों को दरकिनार कर दिया.
टीम अन्ना का कहना है कि यह लोकपाल नहीं, जोकपाल है. सरकारी लोकपाल के दायरे में निचले स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों का भ्रष्टाचार शामिल नहीं होगा. नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा. एक और पेंच है. सरकारी लोकपाल के दायरे में वैसा कोई मामला नहीं आएगा, जो 7 साल से ज़्यादा पुराना है. मतलब यह कि बोफोर्स और चारा घोटाला जैसे मामले इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर दिए गए हैं.
टीम अन्ना के लोगों का कहना है कि यह लोकपाल नहीं, जोकपाल है. जनता के साथ किया गया एक मज़ाक़ है. उनकी दलील है कि रिश्वत़खोरी से पीड़ित आम आदमी की शिकायतें लोकपाल नहीं सुनेगा. सरकारी लोकपाल के दायरे में निचले स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों का भ्रष्टाचार शामिल नहीं होगा. नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा, राज्य सरकारों का भ्रष्टाचार भी इसके दायरे में नहीं आएगा. टीम अन्ना की तऱफ से यह कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों का भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है. इसका मतलब यह है कि 2-जी स्पेक्ट्रम, कैश फॉर वोट, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी और येदियुरप्पा के खनन जैसे घोटालों के खिला़फ सरकारी लोकपाल कुछ नहीं कर सकेगा. सरकार ने एक और पेंच लगा दिया है. सरकारी लोकपाल के दायरे में वैसा कोई मामला नहीं आएगा, जो 7 साल से ज्यादा पुराना है. मतलब यह कि बोफोर्स और चारा घोटाला जैसे मामले इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर दिए गए हैं. लोकपाल के सदस्यों को ही सारा काम करना होगा. यानी सब कुछ 9 सदस्य करेंगेअ़फसरों के पास निर्णय लेने के अधिकार नहीं होंगे, इससे सारा का सारा काम दो-तीन महीने में ही ठप हो जाएगा. टीम अन्ना का आरोप है कि नेता एक अच्छा लोकपाल बिल नहीं ला सकते, क्योंकि अगर एक सख्त लोकपाल कानून बना तो देश के आधे से अधिक नेता दो साल में जेल चले जाएंगे और बाक़ी की भी दुकानदारी बंद हो जाएगी.
सवाल तो यह है कि सरकार सचमुच भ्रष्टाचार से लड़ना चाहती भी है या नहीं. भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इसके स्वरूप को समझना ज़रूरी है. भारत के सरकारी तंत्र में अलग-अलग स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है. सरकार की समस्या यह है कि वह जिन नीतियों को बढ़ावा दे रही है, जिस विचार को सही मान रही है, असल में वही भ्रष्टाचार की जड़ है. 1991 के बाद से भारत में भ्रष्टाचार का स्वरूप बदल गया है. जबसे देश में उदारवाद और निजीकरण का दौर चला है, तबसे हमने उद्योग जगत के जानवरों को समाज में लूट मचाने की खुली छूट दे दी है. पिछले बीस साल का इतिहास यही बताता है कि कॉरपोरेट जगत भ्रष्टाचार का केंद्र बन चुका है. बड़े-बड़े उद्योगों ने अपने मुना़फे के लिए न स़िर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, बल्कि पूरे सरकारी तंत्र को दूषित कर दिया. मनमोहन सिंह की उदारवादी नीतियों ने न स़िर्फ कोटा राज और लाइसेंस राज को खत्म किया, बल्कि उद्योगों पर लगने वाले टैक्स को कम कर दिया. उद्योग जगत पर लगने वाले टैक्स इंदिरा गांधी के शासनकाल की तुलना में आज स़िर्फ एक तिहाई हैं. उदारवाद की नीतियां इसलिए लागू की गई थीं कि उद्योग जगत टैक्स चोरी नहीं करेगा, भारत की अर्थव्यस्था में मौजूद काले धन और कालाबाज़ारी में कमी आएगी. हैरानी की बात यह है कि 1991 में उदारवाद की नीतियां लागू करने से पहले काला धन 27 फीसदी था, लेकिन आज यह ब़ढकर 43 फीसदी पहुंच चुका है. भ्रष्टाचार की स्थिति इतनी गंभीर है कि भारत सरकार को देश के 57 फीसदी मुना़फे का पता ही नहीं चल पाता है. एक आंकड़े के मुताबिक़, भारत में हर साल 35 लाख करोड़ रुपये काला धन बनते हैं, जिसका स़िर्फ 10 फीसदी हिस्सा विदेश भेज दिया जाता है. उदारवाद की नीतियां इस संदर्भ में पूरी तरह विफल रही हैं. मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद सरकार ने आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया है, वही भ्रष्टाचार की मुख्य वजह है. यही उद्योग जगत भारत के आर्थिक विकास के एक आंकड़े (जिसे हम जीडीपी कहते हैं) को मज़बूती देता है. हमारी सरकार को आंकड़ों से इतना प्यार है कि इसके लिए उसने देश की जनता को लूटने वाले उद्योगों को खुली छूट दे रखी है.
1991 में उदारवाद की नीतियां लागू करने से पहले काला धन 27 फीसदी था. आज यह 43 फीसदी हो गया है. भारत सरकार को देश के 57 फीसदी मुना़फे का पता ही नहीं चल पाता है. एक आंकड़े के मुताबिक़, भारत में हर साल 35 लाख करोड़ रुपये काला धन बनते हैं, जिसका स़िर्फ 10 फीसदी हिस्सा विदेश भेजा जाता है. मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद सरकार ने आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया है, वही भ्रष्टाचार की मुख्य वजह है.
विभिन्न राजनीतिक दल, नेता और अधिकारी भ्रष्टाचार के इस भयंकर खेल में एक छोटे खिलाड़ी बन गए हैं, पालतू जीव की तरह बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कठपुतली बन गए हैं. येदियुरप्पा को ले लीजिए. कर्नाटक के लोकायुक्त ने कहा कि खनन घोटाले से राज्य को क़रीब 16 हज़ार करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ. येदियुरप्पा को क्या मिला, सिर्फ 10 करोड़. उद्योगपति 16 हजार करोड़ रुपये का मुना़फा कमा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री को मिला स़िर्फ 10 करोड़! यह तो भीख की राशि से भी कम है. इसी तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को देखिए. सीएजी के मुताबिक़, इस घोटाले से भारत सरकार को एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ. अब कोर्ट में ए राजा के खिला़फ मामला चल रहा है 200 करोड़ रुपये का. अब यह समझ में नहीं आता कि केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर ऐसा क्या दबाव है, जिसकी वजह से वे इन उद्योगपतियों के सामने झुक जाते हैं. सरकार के दृष्टिकोण में ही समस्या है, वह भ्रष्टाचार को खत्म ही नहीं करना चाहती.
देश की जनता का भ्रष्टाचार से रोज सामना होता है. बीडीओ, तहसीलदार, जिला मजिस्ट्रेट, स्कूल, थाना, अस्पताल, कचहरी यानी किसी भी सरकारी विभाग के दफ्तर में घुसते ही आपको पता चल जाएगा कि हमारा सरकारी तंत्र किस तरह भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है. देश के मंत्रियों और नेताओं की आंखों को यह सब नज़र नहीं आता है, लेकिन यह यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है. अगर सरकार भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल लाना चाहती है तो सबसे पहले उसे ग्रास रूट लेवल पर मौजूद भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा. यह करना आसान भी है, लेकिन सरकार ने क्या किया? सरकार ने लोकपाल को ज़मीनी स्तर पर मौजूद भ्रष्टाचार से दूर रख दिया. वैसे एक बात माननी पड़ेगी कि यूपीए सरकार की योजनाओं की वजह से भ्रष्टाचार ने अब पंचायत और गांवों तक अपनी पैठ बना ली है. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना हो, मनरेगा हो या फिर जन वितरण प्रणाली, अब गांव वाले भी भ्रष्टाचार में भागीदारी कर रहे हैं. सरकार को अपनी योजनाओं के सही कार्यान्वयन के लिए मजबूत लोकपाल बनाना चाहिए था. सरकार की मानसिकता पर इसलिए सवाल उठता है, क्योंकि ज़मीनी स्तर के भ्रष्टाचार से लोकपाल को बाहर रखा गया और बहाना बनाया गया कि यह राज्यों का विषय है. यह दलील न तो उचित है और न तर्कसंगत. दूसरा सवाल यह है कि सीबीआई को लोकपाल से बाहर रखने का क्या मकसद है? इसके अलावा यह कि अगर कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिला़फ आवाज़ बुलंद करता है या उसकी जानकारी लोकपाल को देता है तो उसे इस क़ानून के तहत क्या सुरक्षा मिली है? ऐसे लोगों को सुरक्षा न देकर सरकार ने भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई में जनता की हिस्सेदारी खत्म करने की कोशिश की है. अगर सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रति गंभीर होती तो एक मज़बूत लोकपाल बनाती. सीबीआई की एंटी करप्शन ब्रांच को लोकपाल को सौंप देती, जांच के लिए ज़रूरी सारे संसाधन मुहैया कराती. लोकपाल अगर मानवाधिकार आयोग की तरह एक दंतहीन, विषहीन संस्था बनता है तो फिर भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई में इसका कोई योगदान नहीं होने वाला है.
संसद, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका पर संविधान और देश के प्रजातंत्र को बचाने की ज़िम्मेदारी है. आज हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ सालों में इन तीनों संस्थाओं ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में चूक की है. उसी चूक की वजह से भ्रष्टाचार ने पूरे सरकारी तंत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. भ्रष्टाचार के खिला़फ सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई से लोगों में आशा जगी है. मीडिया, रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोग यह आशा जगाते हैं कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. सरकार में विद्वान लोग हैं, क़ानून और अर्थशास्त्र के ज्ञाता हैं, भ्रष्टाचार को समझने और पकड़ने का हुनर इनसे ज्यादा किसी के पास नहीं है. फिर भी जब पी जे थामस के पक्ष में बयान आते हैं, जब ए राजा को निर्दोष बताया जाता है, जब थलसेना अध्यक्ष के खिला़फ साज़िश होती है, जब अदालत प्रधानमंत्री कार्यालय और सरकार को हल़फनामा दाखिल करने का आदेश देती है, जब घोटालों में बड़े-बड़े नेताओं और उनके परिवार के लोगों के नाम आते हैं तो देश के हर नागरिक का विश्वास हिल जाता है. जनता का विश्वास बचाए रखने की सबसे पहली ज़िम्मेदारी सरकार की है. डर इस बात का है कि कहीं सरकार से चूक न हो जाए!

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