Monday 19 December 2011

सारा माल लूटकर सरकार कहती है मुसलमान दलितों से भी पिछडे़ हैं


भारत पर मुसलमानों ने लगभग 800 सालों तक शासन किया. इस दौरान कहीं पर उन्होंने क़िले बनवाए तो कहीं सरायख़ाने, कहीं मस्जिदें बनवाईं तो कहीं बाव़िडयां. इन मुस्लिम बादशाहों की गंगा-जमुनी तहज़ीब से भला कौन वाक़िफ़ नहीं है. भारत में जहां एक ओर अदल जहांगीरी मशहूर है, वहीं दूसरी ओर अकबर की प्रतिष्ठा का सभी लोहा मानते हैं और दारा शिकोह की दूरदर्शिता एवं बुद्धिमानी के चर्चे भी प्रसिद्ध हैं. इन लोगों ने दुनिया भर की दौलत अपने लिए बटोरी. उनके द्वारा छोड़ी गई दौलत सरकार ने पुरातत्व विभाग के हवाले कर दी या फिर अवसर मिला तो उसे ख़ुद ही हड़प लिया अथवा औरों के हाथों लुटवा दिया. नतीजतन मुग़लिया वंश की कोई बहू कोलकाता रेलवे स्टेशन पर चाय बेचकर अपनी ज़िंदगी गुज़ार रही है या फिर इस वंश से संबंध रखने वाले लोग भीख मांगकर अपनी ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर हैं. कोई उनकी ख़बर लेने वाला नहीं है. क्या इन मुस्लिम शासकों ने ताज महल, लाल क़िला, मोती महल, दीवाने-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास और न जाने किन-किन नामों से भवनों के निर्माण इसलिए कराए थे कि उनके वारिस दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे और उन्हें सिर छिपाने की जगह नहीं मिलेगी. क्या दिल्ली के लाल क़िले में औरंगज़ेब द्वारा संगमरमर से बनवाई गई ख़ूबसूरत मोती मस्जिद का निर्माण इसलिए हुआ था कि एक ज़माने के बाद इसमें ताला लगा दिया जाएगा और मुसलमानों को इसमें नमाज़ पढ़ने तक की अनुमति नहीं होगी? पुरातत्व विभाग की निगरानी वाली देश की सभी मस्जिदों का यही हाल है.
अगर केवल दिल्ली की बात की जाए तो यहां वक़्फ़ की इतनी संपत्तियां हैं कि अगर वे मुसलमानों को वापस कर दी जाएं तो उनकी हालत में का़फी सुधार हो सकता है. राष्ट्रपति भवन की भूमि वक़्फ़ के नाम से है, प्रधानमंत्री का निवास वक़्फ़ की भूमि पर बना हुआ है, राष्ट्रीय संग्रहालय का निर्माण वक़्फ़ भूमि पर है और न जाने कितनी प्रसिद्ध धरोहरें हैं, जिन पर देश की प्रतिष्ठित हस्तियां आबाद हैं. सराय काले ख़ां के पास अभी हाल में शीला दीक्षित सरकार द्वारा दिल्ली के सबसे बड़े मिलेनियम पार्क का निर्माण किया गया है, वह ज़मीन कभी क़ब्रिस्तान की थी, जिस पर डीडीए ने अवैध क़ब्ज़ा कर लिया. अब हाल यह है कि दिल्ली की अधिकतर जगहों पर मुसलमानों को अपने मुर्दों को दफ़नाने के लिए जगह कम पड़ रही है. ओखला में दिल्ली की एक बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है, लेकिन शाहीन बाग़ और अबुल फ़ज़ल इन्क्लेव में मुसलमानों के पास क़ब्रिस्तान का कोई प्रबंध नहीं है. यही हाल मालवीय नगर का है, जहां के मुस्लिम क़ब्रिस्तान पर डीडीए ने अवैध क़ब्ज़ा कर रखा है.
अंग्रेज़ों को भारत में शुरू में सबसे अधिक मुसलमानों की ओर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि जिस समय अंग्रेज़ भारत आए, उस समय भारत पर मुसलमानों का शासन था. लिहाज़ा अंग्रेज़ों ने जब भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली, तो उन्होंने मुसलमानों को तरह-तरह से परेशान करना शुरू किया. इसके लिए उन्होंने भूमि बहाली अधिनियम पास करके वक़्फ़ की उन जमीनों से टैक्स वसूलना शुरू कर दिया, जिन पर पहले टैक्स नहीं लगता था. इस प्रकार केवल बंगाल में उन ज़मीनों से 1.1 मिलियन पाउंड की वसूली हुई, जिन पर पहले टैक्स नहीं लगता था. इनमें से अधिकतर ज़मीनें मुस्लिम संगठनों के प्रयोग में थीं, लेकिन अंग्रेज़ों की नीति के कारण सैकड़ों मुस्लिम परिवार तबाह हो गए और उनके शैक्षणिक प्रबंध पर सबसे गहरा असर हुआ, क्योंकि उन्हीं संपत्तियों से मदद मिलती थी. भारत के विभिन्न राज्यों और संघ क्षेत्रों में 4.9 लाख से अधिक रजिस्टर्ड वक़्फ़ संपत्तियां हैं. मसलन पश्चिम बंगाल में सबसे ज़्यादा 1,48,200 वक़्फ़ संपत्तियां हैं. इसके बाद केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का नंबर आता है. पूरे भारत में वक़्फ़ द्वारा अधिग्रहीत भूमि 6 लाख एकड़ है, जिसका किताबी मूल्य 6,000 करोड़ रुपये है
(यह अनुमान आधी सदी पूर्व का है), लेकिन इसकी बाज़ार में की़मत कई गुना अधिक हो सकती है. वर्तमान में बाज़ार के हिसाब से इन संपत्तियों की क़ीमत 1.2 लाख करोड़ रुपये या 12,000 बिलियन डॉलर है. मिसाल के तौर पर केवल दिल्ली में वक़्फ़ की जितनी संपत्तियां हैं, उनकी वर्तमान बाज़ारी क़ीमत 6,000 करोड़ से अधिक है. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि पूरे भारत में फैली वक़्फ़ की कुल संपत्तियों से वार्षिक आय केवल 163 करोड़ रुपये हो रही है, आख़िर क्यों? वसूली केवल 2.7 प्रतिशत हो पा रही है. अब वक़्फ़ संपत्तियों से जितनी वार्षिक आय होती है, उससे वक़्फ़ बोर्ड को अपनी प्रबंध व्यवस्था चलाने के लिए 7 प्रतिशत राशि दी जाती है. शेष 93 प्रतिशत राशि के बारे में आदेश है कि उन्हें अन्य जरूरी मदों पर ख़र्च किया जाना चाहिए. जैसे,
शैक्षणिक संस्थान, छात्रावास, पुस्तकालय, क्रीड़ास्थलों का निर्माण, उनकी देखभाल एवं विकास, छात्रवृत्ति जारी करना, ताकि शिक्षा को विकसित किया जा सके.
सांप्रदायिक दंगों और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों समेत सभी ग़रीबों को चिकित्सा और आर्थिक मदद देना.
मुस्लिम क़ौम के इस्तेमाल के लिए मुसाफिरख़ानों और शादीघरों का निर्माण.
मस्जिदों, दरगाहों एवं क़ब्रिस्तानों का प्रबंध, तलाक़शुदा महिलाओं के भत्ते का प्रबंध.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ इमामों और मुअज़्ज़िन के वेतन का भुगतान.
लेकिन कुछ को छोड़कर वक़्फ़ बोर्ड के अधिकतर उद्देश्यों को अब तक हासिल नहीं किया जा सका है. इसके लिए सरकार और वक़्फ़ बोर्ड के कर्मचारी ज़िम्मेदार हैं. सरकार ने भी अपनी ओर से मुसलमानों को परेशान करने के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल किए हैं. अब मुसलमानों के एक वर्ग की ओर से यह मांग बढ़ती जा रही है कि यूपीएससी की तर्ज़ पर इंडियन वक़्फ़ सर्विसेज़ कमीशन गठित किया जाए, ताकि उसके द्वारा मुसलमानों के बीच से ऐसे शिक्षित लोगों का चयन किया जा सके, जो एक आईएएस अधिकारी की तरह वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन को बेहतर ढंग से चला सकें और वक़्फ़ की सभी संपत्तियों को अवैध क़ब्ज़ों से मुक्त करा सकें, लेकिन यूपीए सरकार के नए क़ानून मंत्री सलमान ख़ुर्शीद मुसलमानों की इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं.
दिल्ली की दरगाहों पर अवैध क़ब्ज़े
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ऐसे सैकड़ों औलिया-ए-कराम की दरगाहें हैं, जिन्होंने लोगों में भाईचारे और सद्भाव की भावना पैदा की और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया. उन्होंने म़ज़हब, जाति, रंग और नस्ल के किसी भेदभाव को कभी सामने नहीं रखा. इन दरगाहों के इर्द-गिर्द कई ऐसी ज़मीनें थीं, जो नेक और दरगाहों से जुड़े लोगों की संपत्तियां थीं, लेकिन बाद में उन पर अवैध क़ब्ज़ा कर लिया गया. दरगाहों की ज़मीनों पर अधिकतर क़ब्ज़े उन हिंदू शरणार्थियों द्वारा किए गए, जो 1947 में भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से पलायन करके दिल्ली पहुंचे थे. इसके अलावा हिंदू महासभा और विश्व हिंदू परिषद जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने भी वक़्फ़ की अधिकतर संपत्तियों पर अपना अवैध क़ब्ज़ा जमा रखा है. मुसलमान तो बेबस हैं, क्योंकि उनमें न तो इन कट्टरपंथी संगठनों से लड़ने की शक्ति है और न सरकार ने सच्चे दिल से कभी उनका साथ दिया.
ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी से भला कौन वाक़िफ़ नहीं है. क़ुतुब मीनार के रूप में आज भी उनकी यादगार दिल्ली के महरौली क्षेत्र में मौजूद है. इस इलाक़े में उनकी दरगाह भी मौजूद है, लेकिन 1947 में देश विभाजन के बाद इस दरगाह का संरक्षक कोई नहीं रहा. इस पर पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों ने क़ब्ज़ा कर लिया. 1948 में महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद और पंडित जवाहर लाल नेहरू के हस्तक्षेप से इस दरगाह को अवैध क़ब्ज़ों से मुक्त कराया गया. इसी तरह पुराने क़िले के समीप ककांगर के एनडीएमसी प्राइमरी स्कूल के क़रीब सन्‌ 1245 में बनी बीबी फ़ातिमा साहिब (चिश्ती) की दरगाह है. इस दरगाह के चारों ओर 5000 गज़ से अधिक ज़मीन ख़ाली पड़ी है, जिस पर अब सरकारी स्कूल की तऱफ से क़ब्ज़ा करने की कोशिश की जा रही है. इसके अलावा दरगाह के उत्तरी भाग में 100 गज़ ज़मीन पर फूलों की एक नर्सरी भी चल रही है.
प्रगति मैदान के पास पुराना क़िला रोड पर शेख़ अबुबकर तूसी हैदरी क़लंदर उर्फ़ मटका पीर की दरगाह एक ऊंचे टीले पर है. यहां के सज्जादानशीं ने बताया कि इस दरगाह की कुल 20 बीघा ज़मीन थी, जो क़ब्रिस्तान के नाम पर थी. 1971 में डीडीए ने उस पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे एक पार्क की शक्ल दे दी.
दिल्ली के नबी करीम, पहाड़गंज में सन्‌ 1376 में बनी दरगाह क़दम शरीफ़ और दरगाहे मख़दूम जहांनयान-ए-जहां गश्त (सहरवर्दी) है. किताबों में कहा गया है कि इस दरगाह में एक पत्थर लगा है, जिस पर पैग़ंबर इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पवित्र क़दमों के निशान हैं. इस पवित्र क़दमों के पत्थर को शेख़ मख़दूम जहांनयान-ए-गश्त फिरोज़शाह तुग़लक़ के शासन में अपने सिर पर रखकर यहां लाए थे, लेकिन इस दरगाह पर 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों ने क़ब्ज़ा कर लिया और इसके विशाल परिसर में मकानों का निर्माण कर लिया. अब इसके अंदर ही बने भवनों का कोई पता नहीं है. उनके ऊपर भी घरों का निर्माण कर लिया गया है. केवल क़दम शरीफ़ की विशेष इमारत अभी सुरक्षित है, जिसे 1951 में अदालत ने दरगाह के सज्जादानशीं पीरजी सलीमुद्दीन को वापस दिलवा दिया था, जिसका गुरुद्वारे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है और यहां से क़दम शरीफ़ का पत्थर उखाड़ कर फेंक दिया गया.
केलोखरी स्थित दरगाहे सैयद महमूद बहार की भी यही कहानी है. इस दरगाह का एक बहुत बड़ा क़ब्रिस्तान है. दिल्ली नगर निगम ने 16 नवंबर, 1978 को इसे क़ब्रिस्तान के रूप में इस्तेमाल करने पर पाबंदी लगा दी थी. दरगाह के प्रबंधक फ़तहुद्दीन ने कुछ लोगों के साथ मिलकर 1990 में इस पाबंदी के ख़िलाफ़ अदालत में याचिका दायर की और इसके बाद फ़तहुद्दीन ने समझौता करते हुए 100 गज़ ज़मीन इन लोगों के नाम कर दी. इसके बाद 1992 में डालचंद नामकएक व्यक्ति ने याचिका दायर करके 250 गज़ ज़मीन पर दावा किया. दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अल्पसंख्यक मामलों के विभाग के चेयरमैन अब्दुल वासे सलमानी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर करके नोटिस जारी कराया कि क़ब्रिस्तान की ज़मीन पर अवैध रूप से बहुमंज़िला इमारत खड़ी की जा रही है, लिहाज़ा उस पर रोक लगाई जाए और ज़मीन मुस्लिम समाज को सौंपी जाए, लेकिन अब तक कोई संतोषजनक निर्णय नहीं लिया जा सका.
शेख़ अलाउद्दीन चिश्ती (1467-1541) की दरगाह मालवीय नगर, शेख़ सराय के सावित्री नगर में मकान नंबर 220 के समीप स्थित है. पहले दरगाह का एक बहुत बड़ा परिसर हुआ करता था, लेकिन अब शेख़ अलाउद्दीन के मक़बरे और इससे सटे किसी अज्ञात सूफ़ी बुज़ुर्ग के मक़बरे के अलावा कुछ भी बाक़ी नहीं बचा है. चाहरदीवारी वाले इस विशाल परिसर में स्थित अन्य इमारतें और बेशुमार पक्की क़ब्रें बर्बाद कर दी गईं. इस पर मकान बना लिए गए हैं. शेख़ अलाउद्दीन की दरगाह के अंदर दुकान चल रही है और इससे सटे उनके ख़ानदान के मशहूर ब़ुजुर्ग शेख़ फ़ख़्र के मक़बरे के गुंबद के नीचे एक क़ब्र मौजूद थी, लेकिन अब यहां फर्नीचर का कारखाना चल रहा है. यहां अक़ीदतमंद आते हैं, लेकिन उन्हें दरगाह के अंदर दाख़िल नहीं होने दिया जाता, डरा-धमका कर भगा दिया जाता है.
कनॉट प्लेस से एक किलोमीटर आगे कोइयां रोड पर नेत्रहीनों के स्कूल के पास सैयद हुसैन नुमा की दरगाह है, जिसका निर्माण 1691 में औरंगज़ेब के दौर में हुआ था. अंदर से यह दरगाह बहुत साफ़-सुथरी है, लेकिन इसका बाहरी हिस्सा जो चारों ओर से घिरा हुआ है, उसमें 20 से भी अधिक मुस्लिम परिवार रहते हैं. दरगाह परिसर में ही क़ब्रिस्तान है, जहां विभिन्न सूफ़ी बुजुर्गों की क़ब्रें मौजूद हैं, जो जर्जर हालत में हैं. छोटी-छोटी दरगाहों को लोग निवास के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. बेशुमार पक्की क़ब्रें बिखरी पड़ी हैं. इसके बहुत बड़े हिस्से पर डीडीए का क़ब्ज़ा है, जिसे पार्क बना दिया गया है. इसी ज़मीन पर नेत्रहीनों के लिए एक स्कूल खोला गया है. बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने यहां अपने कार्यालय और गैराज खोल रखे हैं.
क़रोल बाग़ के मशहूर हनुमान मंदिर के पीछे भोली भटयारी लिंक रोड पर हज़रत ख़ुदानुमा चिश्ती की दरगाह है, जिसे 1694 में बनवाया गया था. इस दरगाह की निगरानी एक कमेटी करती है, जिसके मुतवल्ली रईसुद्दीन हैं. उनके मुताबिक, इस दरगाह की ज़मीन साढ़े चार बीघा है, जिस पर डीडीए ने क़ब्ज़ा कर रखा है. मुक़दमा जीतने के बाद भी डीडीए ज़मीन ख़ाली नहीं कर रहा है. उसका कहना है कि उसने एक लाख रुपये के पेड़ लगाए हैं, जिसका भुगतान करने के बाद ही वह जमीन पर क़ब्ज़ा देगा. अब समस्या यह है कि सोसायटी के पास इतने पैसे नहीं हैं.
सफ़दरजंग के मक़बरे के समीप पूर्व की ओर जोरबाग़ रोड है और उसके पूर्व में कर्बला रोड है. कर्बला रोड जहां ख़त्म होती है, वहीं दरगाह शाह-ए-मरदां है. 18वीं सदी में बनी दरगाह शाह-ए-मरदां का एक महत्वपूर्ण स्थान है. इसका कारण यह है कि इस जगह पर मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अली के क़दमों के निशान एक पत्थर पर हैं. दूसरी ओर इसी जगह पर पैग़ंबर इस्लाम हज़रत मोहम्मद की पुत्री बीबी फ़ातिमा का प्याला, जो पत्थर का है, एक वज्र में रखकर सुरक्षित किया गया है. यह बीबी फ़ातिमा की चक्की के नाम से मशहूर है. मुग़लिया दौर के अंत में दरगाह शाह-ए-मरदां में विभिन्न निर्माण कार्य कराए गए. देश विभाजन के बाद यहां आए शरणार्थियों ने इन पर क़ब्ज़ा करते हुए चाहरदीवारी तोड़ दी और अपने घर बना लिए.

   
                                                                                                                                                                            www.chauthiduniya.com

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