Sunday 22 April 2012

अए मुसलमानों अपना वजूद पहचानो ……………


जब-जब मुसलमानों ने अपने आपको राजनीतिक, आर्थिक, संगठनात्मक और शिक्षित रुप से विकसित करने का प्रयास किया तो मुस्लिम विरोधी ताकतों ने उन पर देशद्रोही और आतंकवादी होने का इल्जाम लगाकर देश के अन्य समुदायों की नजर में गिराने का प्रयास किया। पिछले कुछ दिनों से इन्हीं ताकतो ने मुस्लिम और पिछड़े वर्ग के राजनीतिक संगठन पापुलर फ्रन्ट आफ इंडिया के सीमी के साथ सम्बंध बताकर फ्रन्ट को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि देश की कोई भी राजनीतिक पार्टी और प्रशासनिक अमला नहीं चाहता, कि देश का मुस्लिम समुदाय राजनैतिक, संगठनात्मक, आर्थिक व शिक्षित रुप से आत्मनिर्भर हो और देश के अन्य समुदायों की तरह जीवन के हर क्षेत्र में अपने आपको आत्मनिर्भर बनाकर, अपने हक की बात करे और देश के प्रशासनिक ढ़ाचे में अपनी हिस्सेदारी कायम करे। देश का मुस्लिम समुदाय सियासतधानों और प्रशासनिक अमले का देश के विभाजन के बाद से ही शिकार रहा है और उनकी सदा यही कौशिश रही है कि वो देश के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को देश की मुख्यधारा से कैसे काटा जाए। मुसलमानों को देश की मुख्यधारा से काटने के लिए सबसे पहला हमला तब शुरु हुआ । जब देश की प्रशासनिक भाषा उर्दू के स्थान पर हिन्दी को प्रशासनिक भाषा बनाकर और सदियों से प्रचलित प्रशासनिक भाषा उर्दू को एक ही झटके में ऐसे अलग कर दिया। जैसे कि दूध में से मक्खी। बेचारा मुसलमान उर्दू के लगाव में इतना आत्मसात हो गया कि उसको यह अहसास नहीं रहा कि उसके खिलाफ क्या साजिश हुई है और वो उर्दू के लगाव और हिन्दी व इंगलिश के अलगाव के कारण देश की राजनीति और प्रशासनिक ढ़ाचे से अलग-थलग पड़ गया। जिसके कारण आज देश का मुस्लिम समाज न केवल राजनीतिक, आर्थिक, शिक्षा और संगठनात्म रुप से पिछड़ा बल्कि जिन्दगी के हर शोबे में अन्य समुदायों की अपेक्षा पिछड़ गया और यही कारण है कि आज देश का मुस्लिम समुदाय अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है।
एक आंकड़ें से इस बात को समझा जा सकता है। एक शिकायत यह की जाती है कि मुसलमानों की आबादी तो देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 13.5 प्रतिशत है जबकि खुद मुसलमान इस प्रतिशत को सही नहीं मानते और असली आबादी 20 परसेंट से भी अधिक बताते हैं और भागीदारी सरकार की क्लास सेवाओं में मात्र एक से दो प्रतिशत है। इसका कारण उनके साथ पक्षपात होना बताया जाता है जबकि हमें यह बात पूरी तरह ठीक इसलिये नज़र नहीं आती क्योंकि एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिये चयन का तरीका इतना पारदर्शी और निष्पक्ष है कि उसमें भेदभाव की गुंजाइश ही नहीं है। इसका सबूत दारूलउलूम के एक मौलाना और कश्मीर का वह युवा फैसल है जिसने कुछ साल पहले आईएएस परीक्षा में टॉप किया था।
एक वजह और है। इस तरह की सेवाओं के लिये ग्रेज्युएट होना ज़रूरी है जबकि मुसलमानों में स्नातक पास लोगों की दर 3.6 प्रतिशत है। ऐसा सच्चर कमैटी की रिपोर्ट में दर्ज है। एक समय था जब सर सैयद अहमद खां ने इस ज़रूरत को समझा था और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना की। उनको अंग्रेज़ों का एजेंट बताया गया और बाक़ायदा अंग्रेज़ी पढ़ने और उनके खिलाफ़ अरब से फ़तवा लाया गया। मुसलमानों को यह बात समझनी होगी कि आज केवल मदरसे की तालीम से वे दुनिया की दौड़ में आगे नहीं बढ़ सकते।
हाँ मुगलों के दौर के आखीर में  हिंदुस्तानी मदरसों में उस वक्त का फलसफा (दर्शन), साइंस (विज्ञान), जुगराफिया (भूगोल), साइंस के सभी उलूम (ज्ञान) और राजनीतिशास्त्र वगैरह जैसे सेकुलर विषय पढाये जाते थे और मुसलमानों की शिक्षा का स्टैण्डर्ड (मेयार) इतना ऊंचा था कि बहादुर शाह के दौर के मदरसें अपने वक्त में आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से कम थे। लेकिन अफ़सोस वह मदरसा अब नहीं रहा ! संक्षेप में ये कि मुसलमान हिंदुस्तान में आला तालीम याफ्ता कौम थी लेकिन वही कौम अब आज़ाद हिंदुस्तान में आला तालीम के क्षेत्र में दलितों से भी पिछड़े हैं। अगर हम इस की जिम्मेदारी सिर्फ देश के राजनीतिक हालात पर डाल दें तो ये बात शायद पूरी तरह से सही नहीं होगी। बेशक राजनीतिक माहौल से मुसलमानों को जो मार पड़ी, उसने तालीम के स्टैण्डर्ड को भी प्रभावित किया। लेकिन सिर्फ राजनीतिक माहौल को मुसलमानों की तालीम पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं।
मेरी अदना राय में आज़ादी के बाद मुसलमानों के तालीमी पिछड़ेपन का कारण मुसलमानों का सर सैय्यद की तहरीक से भटकना है। सर सैय्यद अहमद खान ने सन 1860 की दहाई में सिर्फ पहला मुस्लिम  तालीमी अदारा (शिक्षा संस्था) ही कायम नहीं किया था बल्कि सैय्यद खान ने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को आम करने के लिए एक तहरीक चलायी थी। इस तहरीक का मकसद सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी को कायम करना नहीं था बल्कि सर सैय्यद की तहरीक का मकसद हिदुस्तानी मुसलमानों में ये फिक्र पैदा करनी थी कि मुगल हुकूमत के खात्मे के बाद और अंग्रेजों की सरकार बनने के बाद मुल्क में सिर्फ सियासी बदलाव ही नहीं आया है बल्कि पूरी दुनिया ही बदल गई है। सर सैय्यद इस नतीजे पर तब पहुंचे जब उन्होंने इंग्लैंड के दौरे के बाद हालाते ज़माना को अच्छी तरह समझ लिया। उनकी समझ उस वक्त ये कहती थी कि अंग्रेज मुग़लों को इसलिए हराने में कामयाब हुए कि उन लोगों ने दुनिया के नवीनतम ज्ञान यानी साइंस और टेक्नोलोजी पर नियंत्रण पा लिया था, जिसने इंग्लैंड में लोकतंत्र के लिए माहौल बना दिया यानि साइंस औऱ टेक्नोलोजी पर आधारित आधुनिक शिक्षा ने इंसानों को शाही निज़ाम से निकाल कर लोकतंत्र तक पहुंचा दिया।
ये एक तारीखी इंकलाब था। इस इंकलाब का फायदा वही उठा सकता था जो जदीद तालीम से फायदा उठा रहा हो और सर सैय्यद के कौल के मुताबिक इस जदीद तालीम के लिए जदीद तालीमी अदारों का कयाम ज़रूरी था। इसलिए सर सैय्यद ने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का कयाम किया और अपने लेखों के ज़रिए इस चिंता को आम करने के लिए आंदोलन की दाग बेल डाली। पाकिस्तान के लिए आंदोलन से पहले हिंदुस्तानी मुसलमानों में सर सैय्यद की तहरीक का गहरा असर रहा। मुस्लिम बहुलता वाले शहरों में दर्जनों स्कूल खुले, कालेजों का कयाम अमल में लाया गया बल्कि कुछ नवाबों ने उस्मानिया युनिवर्सिटी जैसे अदारे कायम किये लेकिन हद ये है कि पाकिस्तान आंदोलन की शुरुआत के बाद हिंदुस्तानी मुसलमानों का ध्यान तालीम से हट कर राजनीति पर हो गया। इसका नतीजा ये हुआ कि मुसलमान तो तालीम का रहा और ही सियासत का। इस कारण केवल यह था कि जो कौम शिक्षा क्षेत्र में पीछे रह जाए वह किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं पा सकती है। ऐसी कौम दिल से तो सोच सकती है लेकिन दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर सकती है। इसलिए मुसलमान कौम ने अपना व्यवहार बना लिया कि वो हमेशा जोश में रहे और होश खो दिया। इसका नतीजा ये है कि मुसलमान उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिंदुस्तान की आज़ादी के 63 साल बाद दलितों से भी पीछे रह गए।
खैर ये तो पुराना क़िस्सा था। ज़रूरत माज़ी (अतीत) को याद करने की नहीं बल्कि हाल (वर्तमान) में रहकर मुस्तकबिल (भविष्य) को संवारने की है। इसी मकसद से जुलाई महीने की याद दिलाई थी और वो जुलाई भी बस अब खत्म होने वाला है। ये नहीं कहा जा सकता कि इस जुलाई में कितने मुस्लिम छात्र कॉलेज या युनिवर्सिटी तक पहुंचे लेकिन ये बात सच है कि यह अनुपात आज भी बहुत कम है। इसलिए आइए इस जुलाई में एक बार फिर सर सैय्यद अहमद की तालीम लेकर हिंदुस्तानी मुसलमानों में दूसरी सर सैय्यद तहरीक की शुरूआत करें ताकि अगले जुलाई में ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम बच्चे कॉलेजों और युनिवर्सिटियों तक पहुँचे। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हुए तो हम अल्लाह को भी खुश कर देंगे क्योंकि सबसे पहले ये तालीम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम ने हमकोइक़राकहकर दी थी।
Azad Ahmad
A Social worker 

शिक्षा के बिना खत्म नहीं होगा मुसलमानों का पिछड़ापन


मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा, हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं. इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है. या शायद करना नहीं चाह रहा हैसब को मालूम है कि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा. दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमानों की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह गरीब है, बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनातेसच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा महत् दिया गया है. रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना महत् नहीं देते जितना देना चाहिए. दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं. उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं, उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए.
इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है. दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है. एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की. उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता. उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चों के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया. कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे. एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आईआईटी में पढ़ रही हैं. हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं. इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पर लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं. हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगे, लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है. दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है. जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं. ज़रूरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है.
राज्यसभा के उपाध्यक्ष के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं, लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी. हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है. उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया. बताने लगे कि 1964 में बंगलोर शहर में मुसलमानों का कोई कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थेउन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में 1967  में एक कालेज शुरू कर दिया. एक टिन शेड में शुरू हुआ  यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है.शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये, मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआलेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया. आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला. आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है. पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है. बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है.
के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया. कुल सात सौ सात रुपये जमा हुए. गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया. सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया. डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था, उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया. उसने खुश होकर एक लाख रुपये का दान देने का वादा किया. उस एक लाख रुपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया. 100 बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया. फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे. सरकार से केवल मदद मिली. कर्नाटक के उस वक़्त के मुख्यमंत्री राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है. कहने का  तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती है. हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
लेखक शेष नारायण सिंह देश के जाने-माने पत्रकार और स्तंभकार हैं. एनडीटीवी समेत कई चैनलों-अखबारों में काम कर चुके हैं. विभिन्न अखबारों में नियमित रूप से लिखते हैं. कई चैनलों पर बहसों विश्लेषणों में शरीक होते हैं. वेब माध्यम के चर्चित चेहरे हैं.