Sunday 11 December 2011

एक नजर इधर भी


यह बेहद अफ़सोसनाक है के भारत में मुसलमानों की तालिमी,सामाजी,सियासी और माली हालत को लेकर आज़ादी के 59 साल बाद भी कोई संजीदा बहस नही हो रही है. ऐसा लगता है की किसी को इसकी परवाह भी नही है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंग ने 2004 में भारतिया मुसलमानों के तमाम मसलों पर तहकीकात कर उन पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए जस्टिस राजेंद्र सच्चर की सदारत में जिस कमैटी का गठन किया था उसने अपनी रिपोर्ट में जो सबसे चौकानें वाली बात की है वो ये है के " आज भी मुसलमान खुद को अहसासे कमतरी के दायरे से बाहर नही निकल पाया है और हमेशा खुद को ग़ैर महफूज़ ही समझता है." हांलांकि इन हालात के लिए कँहि ना कँहि हम सभी ज़िम्मेदार हैं लेकिन अब वक्त आ गया है के इन सवालों का एक मुकम्मल जवाब ढुंडा जाए.
दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी का 15 फीसदी से कुछ ज़्यादा हिस्सा भारत में रहता है लेकिन दोयम दर्जे के नागरिक की तरह. ?
पिच्छले 15 सालों में भारत में हुई तमाम तरक्की और खुशहाली के बावजूद, मुसलमानों की सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में भागेदारी महज 3 फीसदी से ज़्यादा नही बढ़ पाई है. मीडिया ने भी मुसलमानों को एक पिछड़े हुए समुदाय के तौर पर ही दुनिया के सामने पेश किया जिससे मुसलमानों की दुश्वारियाँ और बढ़ ही गयीं. ऐसे हालत में मुसलमानों के लिए ग़रीबी, पिछड़ेपन और जिहालत की बेड़ियों को काटकर आगे बढ़ना और अपनी जगह बनाना और भी मुश्किल हो जाता है. हालाँकि कुछ लोग अपने अपने तरीकों से मुसलमानों के मुस्तकबिल को ऊँचा उठाने के लिए पहल करते आ रहें हैं लेकिन उनकी ये कोशिशें कागज़ी होकर रह गईं और ज़मीनी सच्चाई से रुबारू ना हो सकीं, शायद इसकी वजह आधे अधूरे मन से की गईं कोशिश थी.
हमें अपने पिछड़ेपन की वजह तालीम का कम होना ही दिखाई देता है. दक्षिण भारत में मुसलमान उत्तर भारत के मुसलमानों से कन्हि अच्छे हालात में अपने तालिमी इदारों को संभाले हुए हैं और लगातार उनमें इज़ाफ़ा भी करते दिखाई देटें हैं लेकिन मुसलमानों की तरफ से ये पहल आज़ादी के 59 साल बाद भी उत्तर भारत में ना हो सकी.
यहाँ ये बेहद ज़रूरी है के मुसलमान खुद के अंदर ये यकीन पैदा करें के वो ऊँचे मयार के तालिमी इदारे कायम कर सकते हैं और दूसरों को रोशनी दिखा सकते हैं. ये वाकई एक बड़ा चैलेंज है.
इसमें कोई शक नही कि पिछले कुछ सालों में माली हालत सुधारने की वजह से मुसलमानों में तालीम का दायरा बढ़ रहा है लेकिन उसका मयार उतना अच्छा नही जितना के होना चाहिए. देखा गया है के अच्छा माहौल ना मिल पाने की वजह से अक्सर होनहार और क़ाबिल बच्चे भी ज़िंदगी में वो मुकाम हासिल नही कर पाते जिसके वो हक़दार हैं.
ये और भी अफ़सोसनाक है कि मुसलमानों में जो लोग अच्छी तालीम और मुक़ाम हासिल कर लेते है वो अपने आप को बाकी क़ौम से अलग थलग कर लेने में ही अपना फायेदा देखते हैं जिसकी वजह से बच्चों की तालीम मदरसों या मौलवियों के हाथों तक ही मह्दूद हो जाती है. दीनी तालीम ज़रूरी है लेकिन मॉडर्न तालीम हासिल किए बिना भी समाज में आगे नही बढ़ा जा सकता और कहा भी जाता है के "दीन पर दुनिया भारी."
मैं समझता हूँ के सरकार को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाए अगर क़ौम के आप और हम जैसे ज़िम्मेदार लोग खामोश ना रहकर पहल करें तो शायद अगली पीढ़ी इस पीढ़ी से सवाल ना करे.

बातें बहुत हो चुकीं आईए कोशिश करें ---
पाक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नही

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