Thursday 22 December 2011

अब लोकपाल नहीं बनेगा


हमारे देश में सरकारी तंत्र के साथ साथ भ्रष्टाचार का तंत्र भी मौजूद है. यह भ्रष्ट तंत्र देश की जनता को तो नज़र आता है, लेकिन सरकार अंधी हो चुकी है. इसलिए सरकारी तंत्र और भ्रष्ट तंत्र दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं. ड्राइविंग लाइसेंस चाहिए तो सरकार के नियम क़ानून हैं, जिसके ज़रिए आपको लाइसेंस नहीं मिल सकता. आप शुमाकर क्यों न हों, उस टेस्ट को पास ही नहीं कर सकते. लाइसेंस के लिए भ्रष्ट तंत्र मौजूद है. घूस खिलाइए, लाइसेंस आपके घर पर पहुंच जाएगा. रेलवे में आरक्षण करवाना हो तो लाइन में आपकी ज़िंदगी बीत जाएगी, लेकिन सीट नहीं मिलेगी, तत्काल सेवा में भी नहीं. टिकट दलालों को पकड़िए, आपके नाम के साथ टिकट उपल्ब्ध हो जाएगा. आप सरकार के  किसी भी विभाग में जाइए, वहां दो तरह से काम कराए जा सकते हैं. एक सरकार द्वारा बनाया गया क़ायदा क़ानून है और दूसरा रिश्वत देकर वहीं काम कराने का एक और तरीक़ा मौजूद है. देश की जनता का इससे रोज़ाना सामना होता है, इसलिए लोग नाराज़ हैं. सरकार के अधिकारी, नेता, उद्योगपति और वे सारे लोग जो आम आदमी नहीं हैं, इस भ्रष्ट तंत्र के पोषक, वाहक, ग्राहक और उस पर पोषित हैं. कोई भी राजनीतिक दल या सरकार इस भ्रष्ट तंत्र को खत्म नहीं करेगी, क्योंकि यही उनकी जीविका का आधार है, यही उनकी लाइफ लाइन है. यहीं से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए पैसे मिलते हैं. सत्ता का हर हिस्सेदार व्यक्ति या संस्थान इस यथास्थिति को बरक़रार रखना चाहता है. हमारे देश का भ्रष्ट तंत्र इतना मज़बूत है कि प्रजातंत्र का ब्रह्मास्त्र भी इस पर कोई असर नहीं छोड़ पाता है. देश की जनता ने कई भ्रष्ट सरकारों को सत्ता से बाहर तो किया, लेकिन भ्रष्टाचार की सत्ता को खत्म नहीं कर सकी. मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि वे सरकार के समानांतर कोई ढांचा खड़ा नहीं कर सकते. समझने वाली बात यह है कि मंत्री जी को सिविल सोसायटी के लोग समानांतर ढांचा ख़डा करते नज़र आते हैं, लेकिन देश में पहले से ही भ्रष्टाचार का जो समानांतर ढांचा ख़डा है, वह उन्हें नज़र नहीं आता. इसे खत्म करने की ज़िम्मेदारी किसकी है? देश के ढाई सौ से ज़्यादा ज़िलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, उसके बारे में सरकार के पास क्या जवाब है?
जिस बात का डर था, वही सच होने जा रहा है. देश में अब एक सशक्त और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाला लोकपाल नहीं बनेगा. इसके लिए सरकार, कांग्रेस पार्टी, विपक्षी पार्टियां और अन्ना हज़ारे ज़िम्मेदार हैं. इन सब से ग़लतियां हुई हैं. ऐसी ग़लतियां जिसे देश की जनता कभी मा़फ नहीं करेगी. लोकपाल के नाम पर देश में जो राजनीतिक वातावरण बना है वह बॉक्सिंग से कम नहीं है. जिसे जहां मौक़ा मिलता है, पंच मार कर देता है. कांग्रेस अन्ना हज़ारे को कभी आरएसएस का एजेंट बताती है तो कभी तानाशाह. अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगी सरकार को धोखेबाज़ और झूठा बताते हैं. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में अलग तू-तू, मैं-मैं चल रही है. देश की जनता भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म होते देखना चाहती है. अ़फसोस इस बात का है कि यह मूल मुद्दा ही इन लोगों के एजेंडे में नहीं है. ये सब होशियार लोग हैं. ये कालीदास नहीं हैं कि जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही काटने लग जाएं.
लोकपाल का क़ानून बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है. सरकार का कहना है कि 30 जून तक सख्त लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो जाएगा. लेकिन सरकार और उनके  मंत्रियों का जो रवैया है उससे यही लगता है कि वे लोकपाल तो बनाना चाहते हैं, मगर वह मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और महिला आयोग के अध्यक्ष की तरह दंतहीन, विषहीन लोकपाल बनाना चाहते हैं. जो प्रधानमंत्री, जजों, बड़े अधिकारियों और सांसदों को भ्रष्टाचार में लिप्त होते तो देख सकता है, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. आज सरकार और कांग्रेस पार्टी कठघरे में खड़ी दिखाई पड़ती है. यही वजह है कि अन्ना हज़ारे ने फिर से अनशन का ऐलान किया है. यह बेहद अ़फसोसजनक स्थिति है कि जनता की नज़रों में सरकार और कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार की समर्थक बन गई है. वजह भी सा़फ है, पिछले एक साल से घोटालों के सामने आने का जो दौर शुरू हुआ है वह थमता दिख नहीं रहा है. सुप्रीम कोर्ट की वजह से यूपीए के दूरसंचार मंत्री ए राजा जेल में हैं. गठबंधन के महत्वपूर्ण घटक के नेता करुणानिधि की बेटी कनीमोई जेल में है. कांग्रेस पार्टी के नेता और कॉमनवेल्थ महालूट के अधिनायक कलमा़डी जेल में हैं. जो भी जांच रिपोर्ट आ रही है उसमें सरकार और कांग्रेस के लोगों का नाम आ रहा है. एक तऱफ रामदेव और अन्ना हज़ारे भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ रहे हैं. लोकपाल पर बहस हो रही है, इस बीच यूपीए के दूसरे मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन पर तलवार लटक रही है. भारतीय जनता पार्टी अब होम मिनिस्टर पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पैसे लेने का आरोप लगा रही है और पी. चिदंबरम का इस्ती़फा मांग रही है. इन सबके बीच सरकार और कांग्रेस पार्टी द्वारा दी गई सारी दलीलें बेमानी लगती हैं. जनता का विश्वास उठ गया है.
लोकपाल का क़ानून बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है. सरकार के मुताबिक़ 30 जून तक सख्त लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो जाएगा. लेकिन उसके रवैये से यही लगता है कि वे लोकपाल तो बनाना चाहते हैं, मगर उसे मानवाधिकार और महिला आयोग के अध्यक्ष की तरह दंतहीन, विषहीन लोकपाल बनाना चाहते हैं. जो प्रधानमंत्री, जजों, बड़े अधिकारियों और सांसदों को भ्रष्टाचार में लिप्त होते तो देख सकता है, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. आज सरकार और कांग्रेस पार्टी कठघरे में खड़ी दिखाई पड़ती है.
लोकपाल को लेकर सिविल सोसायटी और सरकार के बीच प्रधानमंत्री के नाम पर गुत्थम-गुत्थी हो रही है. सिविल सोसायटी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना चाहती है, लेकिन सरकार के प्रतिनिधि इसके खिला़फ हैं. इससे कई सवाल खड़े होते हैं. प्रणब मुखर्जी एनडीए सरकार के दौरान लोकपाल बिल बनाने वाली कमेटी का नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने जो बिल तैयार किया, उसमें प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में रखा. उस व़क्त अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. उन्होंने भी आपत्ति दर्ज नहीं की. अब ऐसी क्या बात हो गई कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से अलग रखना चाहते हैं. इस सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी को देश की जनता को देना चाहिए. पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसे काम किए हैं, जिससे सरकार की दलीलें कमज़ोर हो गई हैं. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का मामला जब सामने आया तो प्रधानमंत्री ने ए राजा को मंत्रिमंडल से ब़र्खास्त करने के बजाए उनका बचाव किया था. फिर सीवीसी की नियुक्ति के मामले में भी मनमोहन सिंह का रु़ख कई सवालों को खड़ा करता है. सीवीसी को नियुक्त करने वाली कमेटी में तीन सदस्य होते हैं. प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा का नेता प्रतिपक्ष. पी जे थॉमस पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. सीवीसी के लिए तीन नाम थे. लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने पी जे थॉमस के नाम पर आपत्ति जताई थी. उन्होंने यह कहा था कि पी जे थॉमस के अलावा किसी को भी ची़फ विजिलेंस कमिश्नर बनाया जा सकता है. इस आपत्ति को दरकिनार करके मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम ने पी जे थॉमस को सीवीसी बना दिया. क्या इसमें प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी नहीं बनती है. फिर इसरो का केस सामने आया. इसरो ने एक कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए नियम क़ानून तोड़ डाले. प्रधानमंत्री पर एक नया सवाल खड़ा हो गया, क्योंकि इसरो प्रधानमंत्री के पास है. इस मामले में क्या कार्रवाई हुई, यह किसी को पता नहीं है. कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर मची लूट पर भी सरकार ने कुछ नहीं किया. आखिरकार सरकार को खेल समय पर कराने की पूरी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी थी. कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई गड़बड़ियों को पकड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने शुंगलु कमेटी का गठन किया था. उसकी रिपोर्ट भी आ गई. कई बड़े-बड़े राजनीतिक अधिकारियों पर सवाल खड़ा हुआ, लेकिन किसी पर कार्रवाई नहीं हुई है. दयानिधि मारन का नाम अब सामने आया है, लेकिन प्रधानमंत्री चुप हैं. सवाल यह है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी ने क्या मंत्रिमंडल की सामूहिक ज़िम्मेदारी के सिद्धांत को भुला दिया है. देश में कई योजनाएं चल रही हैं, जिसकी सीधी ज़िम्मेदारी कैबिनेट सचिवालय की है. इन योजनाओं में घोर भ्रष्टाचार चल रहा है, इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? देश में रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय की ग़लतियों की वजह से देश के बैंकों से नक़ली नोट निकल रहे हैं. प्रधानमंत्री की नाक के नीचे से लाखों करोड़ रुपए का कोयला घोटाला हो जाता है और कोई सुगबुगाहट भी नहीं होती है. शिबु सोरेन के जाने के बाद कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था. यह बात भी याद रखने की ज़रूरत है, ये सब घोटाले मीडिया की वजह से सामने आए. भ्रष्टाचार की कहानी स़िर्फ चंद मंत्रालयों तक ही सीमित नहीं है. मीडिया देश के कई मंत्रालयों के कारनामों से वाक़ि़फ है, लेकिन ठोस सबूत की कमी के कारण मामले दबे पड़े हैं.
जिस देश में संसद सदस्य पैसे लेकर सवाल पूछते हों. समर्थन के लिए जहां विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त ती हो. जहां पैसे देकर लोकसभा में समर्थन खरीदा जाता हो, गठबंधन सरकार बनाने के नाम पर ब्लैकमेलिंग और सौदेबाज़ी होती हो, जहां नीरा राडिया जैसी मीडिया मैनेजर यह तय करती हो कि मंत्री कौन बनेगा तो उस देश के मंत्री को संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देने का क्या अधिकार है?
अन्ना हज़ारे फिर से अनशन पर बैठेंगे, क्योंकि सरकार जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहती है उससे वह संतुष्ट नहीं हैं. कांग्रेस इसे धमकी बता रही है. कांग्रेस अन्ना की टीम के रवैये को ग़ैर लोकतांत्रिक बताती है. कांग्रेस का मानना है कि यह निर्वाचित सरकार को धमकाने जैसा है, लेकिन आमरण अनशन या दबाव के ज़रिये संसद से उसका अधिकार नहीं छीना जा सकता. कपिल सिब्बल केंद्रीय मंत्री के  साथ-साथ देश के जाने माने वकील हैं. क़ानून की समझ उनसे ज़्यादा किसे हो सकती है. यही वजह है कि वह सिविल सोसायटी के रु़ख पर सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं कि उनकी अनेक मांगें ऐसी हैं जिन पर सरकार अकेले निर्णय नहीं कर सकती, क्योंकि देश में संसदीय लोकतंत्र है और हर क़ानून बनाने का हक़ संसद को है. सिविल सोसायटी सरकार का हिस्सा नहीं है और वह सरकार को निर्देशित भी नहीं कर सकती. क़ानून के नज़रिए से कांग्रेस पार्टी की दलील सही है, लेकिन सवाल यह है कि सरकार को धमकाने की स्थिति आखिर क्यों पैदा हुई? चुनी हुई सरकार से लोगों का विश्वास क्यों उठ गया? संसद से उसका अधिकार छीने जाने का सवाल क्यों उठ खड़ा हुआ है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? जिस देश में संसद सदस्य पैसे लेकर सवाल पूछते हों. समर्थन के लिए जहां विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त होती हो. जहां पैसे देकर लोकसभा में समर्थन खरीदा जाता हो, गठबंधन सरकार बनाने के नाम पर ब्लैकमेलिंग और सौदेबाज़ी होती हो, जहां नीरा राडिया जैसी मीडिया मैनेजर यह तय करती हो कि मंत्री कौन बनेगा तो उस देश के मंत्री को संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देने का क्या अधिकार है? जिस देश में उम्मीदवार बनने के लिए अपनी ही पार्टी को घूस देनी पड़े, वोट लेने के लिए पैसे बांटने पड़े, जेल में बंद लोग भी धनबल और बाहुबल के सहारे जनप्रतिनिधि चुन लिए जाते हों. जिस देश में अपराधियों को टिकट देने की राजनीतिक दलों में होड़ लगी हो, तो ऐसे सांसदों को प्रजातंत्र का ध्वजवाहक कैसे माना जाए? भारत पर कांग्रेस पार्टी का शासन पचास साल रहा. क्या इस दुर्दशा के लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार नहीं है. क्या ऐसी संसद और ऐसे संसद सदस्य इस देश के प्रजातंत्र के लिए खतरा नहीं हैं? अन्ना हजारे और उनकी टीम को ग़ैर निर्वाचित तानाशाह बताने से पहले देश की जनता यह जानना चाहेगी कि जो निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, वो कौन सा तीर मार रहे हैं?
अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के लोगों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी का सदस्य नहीं बनना चाहिए था. इससे अन्ना की साख भी बढ़ती और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अन्ना को जो लोग गांधी बता रहे हैं, उन्हें यह भी पता करना चाहिए कि गांधी कभी किसी क़ानूनी कमेटी के सदस्य नहीं रहे. गांधी ने आंदोलन किया और समझौता वार्ता विशेषज्ञों पर छोड़ दी. अन्ना, गांधी के इस फलस़फे को समझ नहीं पाए. जो ग़लती रामदेव ने की, वही ग़लती अन्ना हज़ारे ने की है. वह यह भी नहीं समझ सके कि राजनीतिक दलों से लड़ने के लिए राजनीति आनी चाहिए.
लोकपाल के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियों का रु़ख भी सवालों के घेरे में है. भारतीय जनता पार्टी और वाममोर्चा ने शायद विपक्षी राजनीति के दर्शन को ही भुला दिया है. जो काम अन्ना हज़ारे और रामदेव कर रहे हैं वह असल में विपक्षी पार्टियों का काम है. वामदल चुनाव में बंगाल और केरल क्या हार गया, लगता है कोमा में चला गया है. उसने सारे राष्ट्रीय मुद्दों पर चुप्पी साध ली है. देश की जनता आंदोलित है, लेकिन विपक्ष उसे नेतृत्व देने में नाकाम साबित हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पार्टी से अपना हिसाब बराबर करने में लगी है. दोनों तऱफ से ऐसे-ऐसे बयान दिए जा रहे हैं, जो राजनीति के  गिरते स्तर को चिन्हित कर रहे हैं. इन पार्टियों को समझना चाहिए कि इससे लोगों का विश्वास और मनोबल टूटता है. लोकपाल को लेकर भारतीय जनता पार्टी का क्या पक्ष है, इसे लेकर देश की जनता अंधेरे में है. यही वजह है कि अन्ना जैसे लोग जब भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन करते हैं तो समर्थन मिलता है. अन्ना और रामदेव लोगों में आशा जगाते हैं, वहीं राजनीतिक दल घनघोर निराशा के पर्याय बन चुके हैं. अगर सारी विपक्षी पार्टियां एक सशक्त और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाले लोकपाल का खुला समर्थन करतीं तो सरकार की हिम्मत नहीं होती कि वह इसे टाल सके.
अगर लोकपाल नहीं बनता है तो इसके लिए अन्ना हज़ारे और उनकी टीम भी ज़िम्मेदार होगी. अन्ना हज़ारे और उनके साथियों का लक्ष्य जन लोकपाल बिल को लागू कराना नहीं, बल्कि उसका श्रेय लेना है. उनके पास भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल के अलावा कोई दूसरा तरीक़ा नहीं है. उनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं है. विचारधारा नहीं है. क्या एक ही परिवार से दो सदस्यों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी में शामिल करना ग़लत नहीं है? क्या इस देश में क़ानून के जानकारों की कमी है? यह कहना कि जन लोकपाल बिल हमने बनाया है और इसे कोई दूसरा समझ नहीं सकता, यह बात भी ग़लत है. अगर देश में लोकपाल बनेगा तो वह अन्ना हज़ारे नहीं बनाएंगे. संसद में बिल को पास किया जाएगा. अन्ना की टीम अगर जन लोकपाल बिल को ज्वाइंट कमेटी में पास भी करा लेती है, फिर भी इस पर संसद ही फैसला करेगी. वहां अलग-अलग राजनीतिक दल हैं. जिस तरह से अन्ना की टीम ने सांसदों और नेताओं को आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया, राजनीतिक पार्टियों के खिला़फ बयान देने और सांसदों को भ्रष्ट साबित करने में जुट गई, उससे कांग्रेस के अलावा दूसरे राजनीतिक दल नाराज़ हो गए हैं. क्या अन्ना हज़ारे को यह पता नहीं है कि अगर क़ानून बनेगा तो उसे संसद में बहुमत की ज़रूरत पड़ेगी. सांसदों ने वोटिंग के समय इस नाराज़गी का इज़हार कर दिया तो यह बिल कैसे पास होगा. इसकी रणनीति तो अन्ना हज़ारे को पहले ही बनानी चाहिए. अन्ना हज़ारे को चाहिए था कि आंदोलन की सफलता के बाद वह कमेटी के लिए ऐसे लोगों के नाम आगे करते, जिससे लोकपाल बिल न स़िर्फ तैयार हो जाता, बल्कि संसद में इसे पारित होने की गारंटी भी मिल जाती. अगर इस कमेटी में अरुण जेटली, सीताराम येचुरी, सुब्रमण्यम स्वामी, फाली एस नरीमन और अरविंद केजरीवाल होते तो ये सरकारी प्रतिनिधियों पर न स़िर्फ भारी पड़ते, बल्कि इस बिल को संसद में पास होने की गारंटी भी मिल जाती. यह बात सच साबित हुई है कि अन्ना की टीम सरकार के प्रतिनिधि के  सामने टिक नहीं पाई. अगर जन लोकपाल बिल को लागू कराना मक़सद था तो अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के लोगों को ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी का सदस्य नहीं बनना चाहिए था. इससे अन्ना की साख भी बढ़ती और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अन्ना को जो लोग गांधी बता रहे हैं, उन्हें यह भी पता करना चाहिए कि गांधी कभी किसी क़ानूनी कमेटी के सदस्य नहीं रहे. गांधी ने आंदोलन किया और समझौता वार्ता विशेषज्ञों पर छोड़ दी. अन्ना, गांधी के इस फलस़फे को समझ नहीं पाए. जो ग़लती रामदेव ने की, वही ग़लती अन्ना हज़ारे ने की है. वह यह भी नहीं समझ सके कि राजनीतिक दलों से लड़ने के लिए राजनीति आनी चाहिए. प्रजातंत्र के दो पहलू होते हैं-प्रणाली और सिद्धांत. प्रणाली प्रजातंत्र का शरीर है तो सिद्धांत प्रजातंत्र की आत्मा है. प्रजातांत्रिक प्रणाली का आधार है विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, चुनाव आदि संस्थाएं हैं, लेकिन प्रजातंत्र की आत्मा तो जनमत है. अगर आत्मा ही मर जाए तो शरीर का क्या करेंगे. देश का जनमत भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने की किसी भी मुहिम के साथ है. इस देश का दुर्भाग्य है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली को ढाल बनाकर राजनीतिक वर्ग प्रजातंत्र की आत्मा को ही नष्ट करने में जुटा हुआ है.

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