Thursday 22 December 2011

अपनी मदद आप से ही बच पायेगी की छबि


मुख्तलिफ लोगों ने अपने हिसाब से भारतीय मुसलमानों की मुख्तलिफ छबियां बनाई हैं।
इनमें से ज्यादातर छवियां मीडिया द्वारा प्रचारित-प्रसारित हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के जाने-माने अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह के मत में एक सामान्य मुसलमान वह है जिसके 8-10 बच्चे होते हैं, वह बनियान-लुंगी पहन कर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ पर पान की पीक थूकता नजर आएगा। एक अन्य लेखिका तवलीन सिंह के विचार में एक सामान्य मुसलमान रूढ़िवादी होता है।
अमेरिका और कुछ बड़े मीडिया घरानों की मुसलमानों के बारे में यह धारणा है कि वे सभी बिन लादेन, बाबर, मुल्ला उमर, मौलाना मसूद अजहर और इनके द्वारा प्रचारित आतंकवाद की हिमायत करने वाले हैं। संघ परिवार के लोग तो मुसलमानों की तुलना गद्दारों से करते हैं और उन्हें देशभक्त नहीं मानते।
मीडिया का ही एक हिस्सा एक आम मुसलमान के बारे में ऐसा मानता है कि वह भोजन में नमक अधिक होने पर, पत्नी के साड़ी पहन लेने पर, किसी बात पर जरा सा गुस्सा आने पर उसे तुरंत प्रताड़ित कर तलाक दे देता है। वह परिवार नियोजन में विश्वास नहीं रखता, घेटो (एक अलग-थलग बस्ती) में रहने वाले लोगों जैसी मानसिकता रखता है, आधुनिक शिक्षा से दूर रहता है, वंदे मातरम् का विरोध करता है, बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण, सलमान रश्दी, तस्लीमा नसरीन के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। मुसलमानों की एक और छवि यह बनाई गई है कि वे अपनी अंधेरी, बदबूदार, जर्जर बस्तियों में रहना पसंद करते हैं। उनके बच्चे गलियों की कीचड़-मिट्टी में लोटते रहते हैं और गुल्ली-डंडा या प्लास्टिक की गेंद से क्रिकेट खेलते रहते हैं। मुसलमानों के बारे में मीडिया की बनाई गई छवियों में से एक छवि यह है कि वे अपनी औरतों और बच्चियों को आधुनिक तो क्या, प्राचीन शिक्षा भी देना पसंद नहीं करते है। वे औरतों को अपने समाज में कोई हक नहीं देते, जिससे मुस्लिम महिलाएं लाचारी का जीवन बिताती हैं। मुस्लिम पुरुष जब चाहते हैं, तब शादी कर लेते हैं और जब चाहते हैं तलाक भी दे देते हैं और यह नहीं सोचते कि तलाक देने से उस औरत का क्या होगा।
इसके अलावा मुसलमानों की एक और छवि यह है कि वे तालिबान, अरब देशों जैसे फलस्तीन, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि के गुणगान में लगे रहते हैं, जबकि इन देशों को भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं। आम मुसलमानों के बारे में एक छवि भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा बनाई गई है। इनके अनुसार सभी मुसलमान अल्पसंख्यकवादी हैं और वे चुनाव में मुस्लिम प्रत्याशी को ही वोट देते हैं। यह भी माना जाता है कि मुसलमान धर्म के आधार पर मतदान करते हैं ।
सचाई यह है कि इन सभी छवियों में से मुसलमान की एक भी छवि नहीं है। मुसलमान की बस एक ही छवि है कि वह टूट कर इस्लाम को चाहने वाला होता है, अपने रसूल से बेपनाह मुहब्बत करता है और अपने धर्म, रसूल पर किसी भी समय मर-मिटने के लिए तैयार रहता है। पर एक सही बात यह भी है कि इन बनी-बनाई छवियों के आधार पर भारत में बसे मुसलमानों का आकलन नहीं हो सकता।
जब देश का विभाजन हो रहा था तो उस समय भारत के बहुलतावादी समाज के समर्थक स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों से एक ऐसा भाषण दिया था कि पाकिस्तान जाने वाले अनेक लोगों ने अपने बिस्तरबंद खोल दिए थे और मौलाना के इस शेर पर लब्बैक कहा था 'जो चला गया उसे भूल जा, हिंद को अपनी जन्नत बना।'
पर यहां रुक जाने और इस वतन को अपना मानने के बावजूद भारतीय मुसलमान को शक की नजर से क्यों देखा जाता रहा है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है
मुसलिम नेताओं और मुल्क की खतरनाक राजनीती के कारण भी आज मुसलमान इतने पिछड़े हुए हैं। अगर मुस्लिम नेता ईमानदारी से अपने समुदाय के नेतृत्व की बागडोर संभालते तो आज मुसलमानों की तुलना समाज के सबसे पिछड़े वर्गों से नहीं होती। एक तो अपने नेताओं की उपेक्षा और दोसरी तरफ मुस्लिम मुखालिफ वातावरण, इन दोनों वजहों से भारतीय मुसलमानों में खीझ बढ़ती गई और वे मुख्य धारा से दूर खिंचते चले गए। इन सारी वजहों के नतीजे में आज भारत का मुसलमान बिखरा-बिखरा सा नजर आता है।
भारतीय मुसलमानों को एक सामान्य मनुष्य व देश के अन्य नागरिकों के समान अधिकारों की मांग और जिम्मेदारियों की पहचान करनी होगी। साथ ही दूसरे धर्मों-समुदायों के लोगों के साथ समानता पर आधारित तालमेल बिठाने की गुंजाइश पैदा करनी होगी, वरना बहुत देर हो जाएगी ।
भारत जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और तरक्की कर रहा है उस तरक्की का भाग्यादर बन्ने की लिए भारतीय मुसलमानों को अब जागना होगा, किसी दोसरे पर भरोसा करने के बजाये अपने आप पर भरोसा करना होगा, दोसरे से मदद की उम्मीद छोड़ कर अपनी मदद आप करनी होगी, इस लिये के दुनिया की तारिख में वही कौमें कामियाब होती हैं जो अपनी मदद आप करना जानती हैं।

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