Wednesday 14 December 2011

मुख्‍यधारा में कैसे आए मुसलमान

हमारे देश में आज़ादी के बाद से ही सुनियोजित तरीक़े से एक सामान्य बोध विकसित कर दिया गया है कि मुसलमान मुख्य धारा में नहीं आना चाहते और इसी वजह से वे पिछड़े हैं. कहने को मुस्लिम हर मामले में पिछड़े हुए हैं, लेकिन उन्हीं पर यह आरोप है कि बरसों से सियासी पार्टियां उनका तुष्टीकरण कर रही हैं. मानों मुसलमानों की शर्त पर ही पूरा देश पिछड़ा हो. ख़ैर, मान लिया जाए कि मुखतलिफ सरकारें और सियासी पार्टियां मुसलमानों का तुष्टीकरण करती रहीं, लेकिन उसके फायदे मुस्लिम समाज में कहीं दिखाई क्यों नहीं देते? इसका जवाब किसी के पास नहीं. उल्टे जब भी यह कथित तुष्टीकरण हुआ, मुस्लिम समाज तऱक्क़ी की दौड़ में और पीछे हो गया. बुज़ुर्ग शाहबानो का मामला एक छोटी सी मिसाल भर है. मुसलमान मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पाए और इसकी क्या बड़ी वजहें हैं, आइए सिलसिलेवार पड़ताल करें.
धर्मनिरपेक्ष सरकार और तमाम संवैधानिक अधिकारों के होने के बावजूद मुसलमानों को समय-समय पर मुसलमान होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है, जिसकी तऱफ शायद ही किसी का ध्यान जाता है. खास तौर पर वे नौकरशाही और सुरक्षा एजेंसियों की सांप्रदायिक सोच का सबसे बड़ा शिकार हैं. बिना अपराध के उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ती है. जब भी कहीं सांप्रदायिक दंगे या आतंकी घटना होती है, पूरे मुस्लिम समुदाय पर ख़ौ़फ तारी हो जाता है. पुलिसिया धरपकड़ का पहला निशाना मुसलमान होते हैं और बिना समुचित जांच-पड़ताल के गिरफ़्तारियां होने लगती हैं.
आज अगर हिंदुस्तानी मुसलमान मुल्क की मुख्यधारा में कहीं नज़र नहीं आता, तो उसके पीछे बकायदा एक सोची-समझी साजिश रही है. सरकार के अंदर-बाहर बैठी दक्षिणपंथी ताक़तें बरसों से मुसलमानों के इर्द-गिर्द साजिशों के तार बुनती आई हैं, जिनकी गिरफ़्त से वे चाह कर भी बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. आज़ादी के बाद मुसलमानों पर सबसे बड़ी गाज इवाक्यूई प्रॉपर्टी लॉ (निष्क्रांत संपत्ति क़ानून) की शक्ल में गिरी. इस क़ानून के तहत मुसलमानों के उद्योग, व्यापार, दुकान, मकान, ज़मीन-जायदाद और संपदा का हरण इस आधार पर किया गया कि उनके परिवार के सदस्य बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. ज़ाहिर है, इस मनमाने क़ानून ने उनकी आर्थिक-सामाजिक हालत ख़राब करके रख दी. वे रातोंरात अपने पुरखों की ज़मीन-जायदाद से बेदख़ल हो गए. अपनी जड़ों से कट चुके मुसलमान इतने पस्त हिम्मत हो चुके थे कि विरोध जताने या खुद को संगठित कर पाने में अक्षम थे. लिहाज़ा हिंदुतान में उन्हें जो थोड़ा-बहुत मिला, उसे ही अपनी क़िस्मत समझ चुप बैठ गए. अपनी ज़मीन-जायदाद से तो वे बेदख़ल हुए ही, सरकारी नौकरियों में भी उन्हें लेने से रोका गया. पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार में उद्योग मंत्री रहे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जो बाद में जनसंघ के संस्थापक बने) ने अपने विभाग में बकायदा एक गोपनीय परिपत्र के ज़रिए मुसलमानों को नौकरियों में लेने से रोका. उस गोपनीय परिपत्र का मजमून कुछ इस तरह से था, पाकिस्तानियों या संभावित पाकिस्तानियों को. मुसलमानों के प्रति कमोबेश कुछ ऐसा ही रवैया तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का रहा. उन्होंने अपने एक शासनादेश में कहा था कि पुलिस और सेना में मुसलमानों की भर्ती न की जाए या कम से कम की जाए. पंत का यह शासनादेश जाने-अनजाने आज तक बरक़रार है. सेना की चयन प्रक्रिया में आज भी ऐसी मानसिकताएं काम कर रही हैं, जो सेना में मुसलमानों के चुने जाने के ख़िला़फ हैं. मौजूदा समय में 10 लाख भारतीय सैनिक हैं, जिनमें मुस्लिमों की संख्या महज़ 29 हज़ार होना सेना में भेदभाव की ओर ही इशारा करता है.
ज़ाहिर है, आज़ादी मिलने के शुरुआती 25-30 सालों में बमुश्किल उन्हें सरकारी नौकरियों में जगह मिली. मुसलमानों पर अविश्वास और उन्हें शक की निगाह से देखा जाना एक बड़ी वजह रही, जिसके चलते वे शुरुआत से ही तऱक्क़ी की दौड़ में पिछड़ते चले गए. जैसे-तैसे यह यक़ीन बहाल हुआ. मुसलमानों ने मुख्यधारा में आने की कोशिश की, मगर देश में होने वाला हर सांप्रदायिक दंगा उन्हें पीछे की ओर धकेल देता. दंगों की आंच से मुसलमानों के रोज़गार सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए. दंगों की ज़्यादातर वजह मजहबी बताई जाती है, जबकि उनके पीछे आर्थिक वजहें ज़्यादा काम करती हैं. मिसाल के तौर पर मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, मेरठ, अलीगढ़, मालेगांव, औरंगाबाद, मुरादाबाद, भिवंडी, भागलपुर एवं कानपुर आदि शहरों में जहां मुसलमान आर्थिक रूप से ज़्यादा मज़बूत थे, वहीं सबसे ज़्यादा दंगे हुए. इन दंगों ने मुसलमानों की आर्थिक कमर तोड़ कर रख दी. आज से 60 साल पहले संविधान बनाते व़क्त हमारे देश के कर्णधारों ने भले ही किसी के साथ मजहब, जाति, संप्रदाय, नस्ल और लिंग के आधार पर कोई फर्क़ न करने का ऐलान किया हो, मगर आज हक़ीक़त इसके उलट है. खास तौर पर मुसलमानों के साथ यह भेदभाव हर मामले में दिखाई देता है. मुस्लिम समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सुरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र आदि में बहुसंख्यक समाज से काफी पीछे है. अलबत्ता, संविधान के तहत समानता का हक़ उसे भी हासिल है.
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट का अभी हाल में आया सर्वे देश में मुसलमानों के बदतरीन हालात को बयां करता है. सर्वे के मुताबिक़, देश में हर 10 में से 3 मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे ज़िंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं. उनकी मासिक आय 550 रुपये से भी कम है. रिपोर्ट बताती है कि 31 फीसदी मुस्लिम ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. बावजूद इसके मुल्क के हुक्मरानों को कहीं भी भेदभाव नज़र नहीं आता. 1980 में गोपाल सिंह कमेटी और बाद में सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों में मुसलमानों की तस्वीर बहुत हद तक नज़र आई है. मुसलमानों के समग्र विकास के लिए सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से कई स़िफारिशें की थीं. सबसे अहम स़िफारिश थी, सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों के प्रति होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए समान अवसर आयोग की स्थापना, लेकिन रिपोर्ट को आए 4 साल हो गए, पर समान अवसर आयोग अभी तक हक़ीक़त नहीं बन पाया, जबकि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में समान अवसर आयोग गठित करने का वादा किया था. यही नहीं, यूपीए द्वारा दोबारा सत्ता संभालने के तुरंत बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने जून 2009 में संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए समान अवसर आयोग गठित करने की सरकार की प्रतिबद्धता का खास तौर पर ज़िक्र किया था.
सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की दूसरी अहम स़िफारिश थी, दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान किया जाए, लेकिन इस पर भी सरकार कतई संजीदा नहीं दिखाई देती. जबकि संसद और बाहर दोनों जगह सरकार पर रंगनाथ मिश्र आयोग की स़िफारिशें लागू करने का ज़बरदस्त दबाव बना हुआ है. असल में देश में मुसलमानों का पिछड़ापन इतना है कि शहरी इलाक़ों में तक़रीबन 38 फीसदी और ग्रामीण इलाक़ों में 27 फीसदी मुसलमान ग़रीबी रेखा के नीचे बदतरीन हालत में गुज़र-बसर कर रहे हैं. उनके पिछड़ेपन को देखते हुए मिश्र आयोग ने पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी कोटे में भी अल्पसंख्यकों का कोटा निर्धारित करने की वकालत की है, लेकिन केंद्र सरकार ने इस ओर अभी तक कोई पहल नहीं की. लोकसभा और विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मौजूदा परिसीमन अधिनियम की समीक्षा करने की स़िफारिश की थी. इस पर यूपीए सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन भी कर दिया था, लेकिन उसकी रिपोर्ट का अभी भी इंतज़ार है. व़क्फ संपत्तियों के उचित प्रबंधन के लिए यूपीए सरकार ने संसद में बयान दिया था कि मौजूदा व़क्फ बोर्ड में त्रुटियों और कमियों को दूर करने के लिए व़क्फ अधिनियम में शीघ्र ही व्यापक संशोधन किया जाएगा, जिससे करोड़ों-अरबों रुपये की व़क्फ संपत्तियों का बेहतर ढंग से इस्तेमाल हो सके, पर यह संशोधन भी संसद में पेश होने की बाट जोह रहा है.
मुस्लिमों की आय का मुख्य ज़रिया ख़ुद का रोज़गार है. सच्चर कमेटी का आकलन था कि मुसलमानों को वित्तीय संस्थाओं से दूसरों की अपेक्षा कम क़र्ज़ मिलता है. उन्हें क़र्ज़ देने में आनाकानी की जाती है. हर जगह यह हालत होने के बावजूद कहीं भी इसकी निगरानी नहीं होती. लिहाज़ा सरकार ने इस दिशा में सुधार करने के लिए मुस्लिम नौजवानों को स्वरोज़गार के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से क़र्ज़ की सहूलियत बढ़ाने, आगामी 3 साल में क़र्ज़ मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 15 फीसदी तक ले जाने और इसकी निगरानी करने का वादा किया था, लेकिन हालात आज भी बिल्कुल नहीं बदले हैं. इस मामले में ख़ुद सरकारी आंकड़े कुछ और कहानी बयां करते हैं. वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़,साल 2009-10 में गुजरात में सरकारी बैंकों ने अल्पसंख्यकों को जो कर्ज बांटा, वह उनके द्वारा प्राथमिक क्षेत्र को बांटे गए क़र्ज़ का महज़ 4.45 फीसदी है, जबकि यह 10 फीसदी होना चाहिए था. बैंकों ने यहां अल्पसंख्यकों को 5,341 करोड़ रुपये देने का लक्ष्य रखा था, वहीं बांटा स़िर्फ 1860.81 करोड़ रुपये यानी महज़ 34.84 फीसदी. मुसलमानों को क़र्ज़ देने के मामले में सबसे हैरतअंगेज़ बात यह है कि चाहे गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार हो या फिर दिल्ली में शीला दीक्षित की कांग्रेस सरकार, दोनों का मुसलमानों को क़र्ज़ देने के मामले में एक जैसा रवैया है. दिल्ली में यह लक्ष्य 5,982 करोड़ रुपये का था, लेकिन बांटे गए महज़ 3,165 करोड़ रुपये. यानी लक्ष्य का महज़ 52.97 फीसदी. कमोबेश यही हाल कांग्रेस शासित अन्य राज्यों महाराष्ट्र एवं राजस्थान का रहा, जहां तय लक्ष्य का 50 एवं 58.51 फीसदी ही क़र्ज़ बांटा गया.
इसके अलावा यूपीए सरकार ने ऐलान किया था कि चिन्हित किए गए 90 अल्पसंख्यक आबादी बाहुल्य ज़िलों, जो विकासात्मक मापदंडों पर पिछड़े हुए हैं, में बुनियादी और आर्थिक सुविधाओं में सुधार के लिए खास प्रावधान किए जाएंगे. सरकार ने इस दिशा में कोशिश भी की. इन इलाक़ों के विकास के लिए बहुक्षेत्रीय विकास योजना यानी एमएसडीपी शुरू की गई, जो 2,750 करोड़ रुपये की महत्वाकांक्षी योजना है. श्रीमती इंदिरा गांधी के 15 सूत्रीय अल्पसंख्यक कल्याण कार्यक्रम के बाद मुसलमानों के समग्र विकास के लिए यह दूसरी सबसे बड़ी पहल है, लेकिन यह बहुउद्देशीय योजना भी संकीर्ण राजनीति और उदासीन अफसरशाही का शिकार होकर रह गई है. राज्य सरकारों और नौकरशाहों का इस योजना के प्रति उपेक्षापूर्ण और उदासीन रवैया है. इसका उदाहरण महाराष्ट्र है, जहां 2008-09 के दौरान इस मद में 169 करोड़ रुपये जारी किए गए, लेकिन सरकार ने इस पैसे को हाथ तक नहीं लगाया. कमोबेश यही हाल अन्य राज्यों का है, जहां बमुश्किल इस रकम का 10 से 15 फीसदी ही ख़र्च किया जा सका है.
धर्मनिरपेक्ष सरकार और तमाम संवैधानिक अधिकारों के होने के बावजूद मुसलमानों को समय-समय पर मुसलमान होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है, जिसकी तऱफ शायद ही किसी का ध्यान जाता है. खास तौर पर वे नौकरशाही और सुरक्षा एजेंसियों की सांप्रदायिक सोच का सबसे बड़ा शिकार हैं. बिना अपराध के उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ती है. जब भी कहीं सांप्रदायिक दंगे या आतंकी घटना होती है, पूरे मुस्लिम समुदाय पर ख़ौ़फ तारी हो जाता है. पुलिसिया धरपकड़ का पहला निशाना मुसलमान होते हैं और बिना समुचित जांच-पड़ताल के गिरफ़्तारियां होने लगती हैं. देश में हाल में हुए तमाम बम विस्फोटों में जांच एजेंसियों ने जो गिरफ़्तारियां कीं, यदि समीक्षा करें तो उनमें सबसे ज़्यादा गिरफ़्तारियां मुसलमानों की हैं. यह बात अलग है कि सबूत न मिल पाने के चलते बाद में उन्हें छोड़ना पड़ा. मसलन जयपुर बम विस्फोट में डॉ. अबरार एवं अनवार और हैदराबाद में 22 मुस्लिम नौजवानों को मक्का बम विस्फोट का गुनहगार बताकर पहले तो 8-10 महीने जेल में रखा गया और फिर बाद में छोड़ दिया गया. इन घटनाओं से सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तानी मुसलमान किन हालात से गुज़र रहे हैं. उनके प्रति संदेह और अलगाव के माहौल ने उन्हें मुख्यधारा से काटकर रख दिया है.
यही वे वजहें हैं, जिनके चलते मुसलमान चाह कर भी मुख्य धारा में नहीं आ पा रहे हैं. मुसलमान मुख्यधारा में आएं, इसके लिए सरकार को अतिरिक्त कोशिशें करनी होंगी. सबसे पहले सच्चर कमेटी एवं रंगनाथ मिश्र आयोग के तमाम सुझावों और स़िफारिशों को ईमानदारी से अमल में लाना होगा. नौकरशाही में व्याप्त सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और उदासीनता दूर करने के विशेष प्रयास करने होंगे. मुसलमानों के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान से न स़िर्फ इस समुदाय की हालत सुधरेगी, बल्कि देश का भी समुचित विकास होगा. तमाम आयोगों-कमेटियों के गठन के पीछे सरकार की हमेशा यही मंशा रही है कि मुसलमानों का विकास किया जाए और उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए. दरअसल, सवाल हाशिए पर रहे समाज को आगे बढ़ाने का भी है. उपेक्षित तबकों की न्यायोचित आकांक्षाओं-मांगों की अनदेखी भला कब तक की जा सकती है. सामाजिक न्याय सभी जगह ज़रूरी है. न्याय होगा तो मुसलमानों के विकास में भी झलकेगा. ज़ाहिर है, मुस्लिम समुदाय का विकास देश के विकास से अलग नहीं है.
(लेखक अल्‍पसंख्‍यक मामलों के जानकार हैं)
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