Monday 10 October 2011

अब लीडर हमारा और लीडरशिप भी हमारी होगी

शीबा असलम फहमी
किसी भी कौम या समुदाय के लिए अगर जिंदा रहना, इज्जत से जिंदगी गुजारना ही एक यक्ष प्रश्न बन जाए तो जिंदगी की बाकी जरूरतें और मूल्य जैसे नागरिक अधिकार, आजादी, शिक्षा, स्वास्थ्य, भागीदारी जै से मुद्दे बहुत पीछे चले जाते हैं। मुसलमानों के साथ भी यही हुआ। ..आने वाले राजनीतिक परिदृश्य में परम्परागत मुस्लिम सियासत उत्तर भारत में एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ी है जिसका मकसद अपनी लीडरशिप में बृहत्तर समाज को साथ लेकर सियासत करना है, न कि अब तक की आजमाई हुई पार्टियों में सीटों और टिकटों की तादाद पर सब्र कर पत्थरों से दूध निकालने की कोशिश..

भारतीय मुसलमानों के सामने अंदरूनी तौर पर जो सबसे अहम मसला दरपेश है वह कयादत का मसला है। वैसा नहीं जैसा 30 या 40 साल पहले था। लेकिन उस वक्त यह समाज आत्ममंथन के ऐसे बलबले से नहीं गुजर रहा था जिससे इस वक्त दो-चार है। अंतरराष्ट्रीय सतह पर फिलिस्तीनएक मुस्लिम-चुम्बककी तरह सियासी रुझानों की दिशा दे रहा था। तब तक अमेरिका भी रूस-कम्युनिस्ट ब्लॉक में उलझा था और उसने इस्लामी-आतंकवादका आविष्कार भी नहीं किया था, लिहाजा अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम सियासत फिलिस्तीन मसले पर लामबंद थी। जबकि आज मुस्लिम सियासत में फिलिस्तीन, ज्ोरे फेहरिस्त न होकर आखिरी क़दमत्तों पर सिसक रहा है। इस्लामी आतंकवाद नाम की लानत आज हर मुसलमान को असर अंदाज कर रही है। आज जवान होते बेटों की मांओं का नाइटमेर’ (दु:स्वप्न) है यह शब्द। हर मुसलमान मां इस अंदेशे से सिहरती है कि सुरक्षा एजेंसियां कहीं उसके बच्चे को किसी आतंकवादी घटना में न फंसा दें। भारत की हद तक कश्मीर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल तक हर मुसलमान मां-बाप को यह खौफ है। रहनुमाओं से असंतोष मुस्लिम समाज के भीतर इस शिकार किये जाने (सेंस ऑफ विक्टिमहुड) की भावना ने कई दिशाओं में आत्ममंथन की शुरुआत की है। जिसकी प्रमुख दो धाराएं उदारवादी और रवायतवादी हैं। लेकिन दोनों ही धाराओं में जो एक साझा असंतोष है- वह है अपने रहनुमाओं से। मुसलमानों के अब तक के लीडरान हमारी जिंदगी के हर फ्रण्ट पर नाकाम हुए हैं। चाहे शिक्षा का मामला हो या सार्वजनिक क्षेत्र में भागीदारी और प्रतिनिधित्व का, चाहे दंगों में बे-मौत मारे जाने का मामला हो या, दंगों के बाद के पुनर्वास का। चाहे आतंकवादी कहकर गैर न्यायिक गिरफ्तारी, प्रताड़ना (टॉर्चर) और हिरासत में मौत का मामला हो, या फर्जी एन्काउण्टर में मारे जाने का; ऐसे किसी भी जिंदगी और मौत से जुड़े मामले में मुसलमान नामवाले नेता बेहद नाकारामद साबित हुए हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हों। नमक अदायगी में भूले मसले कांग्रेस, जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टियां, लोकदल, समाजवादी पार्टी, जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, सभी के पास मुसलमान नामवाले नेता हैं जिनके होने को ये सियासी पार्टियां अपने सेकुलर, राष्ट्रीय और हर फिरके से जुड़े होने के प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल करती हैं और 65 सालों बाद आज की तल्ख हकीकत यही है कि शाहिद सिद्दीकी, सैयद शहाबुद्दीन, सैयद शाहनवाज हुसैन, मोहसिना किदवई, नजमा हेपतुल्लाह, गुलाम नबी आजाद, मुख्तार अब्बास नकवी, आजम खां और ई. अहमद जैसे ऊंची जाति के वाक्पटु, पढ़े-लिखे और अपनी-अपनी पार्टी के मुस्लिम चेहरा बने हुए इन नेताओं का सारा टैलेण्ट इस निकम्मेपन के ऊपर ही खर्च होता है कि उनकी अपनी पार्टी पर लगने वाले आरोपों से कैसे निबटें, कैसे पार्टी का नमक अदा करें। इंसाफ दिलाने की हैसियत नहीं भागलपुर, मेरठ, मलियाना, मुम्बई, सूरत, गुजरात, फारबिसगंज बाटला हाउस जैसे काण्डों के बाद जिम्मेदार सरकारें हमेशा अपने घरेलू मुस्लिम चेहरेको डैमेज-कण्ट्रोल में लगाती रही हैं। इन चेहरों का काम सिर्फ इतना ही है कि ये कैसे नए-नए तकरे का आविष्कार कर सरकार के डर्टी-एक्टको या तो जस्टीफाई करें या जांच कमेटी के लॉली पॉप द्वारा मुस्लिम क्रोध को फिलहाल शांत करें। इन नेताओं की कभी इतनी हैसियत नहीं होती कि अपनी सरकार से इंसाफ दिलवा सकें। हेट क्राइमका शिकार कहने का लब्बो-लुआब यह है कि भारत की मुस्लिम आबादी लगातार हेट-क्राइमका शिकार है, आतंकवाद के मामलों में फर्जी नामजदजी का शिकार है, धार्मिक-प्रोफाइलिंग का शिकार है लेकिन एक भी ऐसा नेता नहीं है मुसलमानों के बीच जो अपनी सरकार-पार्टी को इसके प्रति संवेदनशील बना सके या खुद ही कोई ऐसा कदम ले सके कि जानवरों से बदतर मौत का शिकार हुए इन हजारों बदनसीबों के करीबी एक रात चैन से सो सकें। किसी भी कौम या समुदाय के लिए अगर जिन्दा रहना, इज्जत से जिंदगी गुजारना ही एक यक्ष प्रश्न बन जाये तो जिंदगी की बाकी जरूरतें और मूल्य जैसे नागरिक अधिकार, आजादी, शिक्षा, स्वास्थ्य, भागीदारी जैसे मुद्दे बहुत पीछे चले जाते हैं। मुसलमानों के साथ भी यही हुआ। संवाद को मिली दिशा भला हो सन् 2005 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खुलासों का, जिसकी वजह से एक बार फिर गौर- ओ-फिक्र का रुख दंगे और आतंकवाद के भय से हटकर दोबारा शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरी- भागीदारी की तरफ आया है। सच्चर कमेटी के खुलासों ने बहस को राजनीतिक के अलावा समाजी- आर्थिक हलकों की तरफ मोड़ा है। मुसलमानों की कामगर-कारीगर पसमांदा आबादी के बीच से जो एक तालीमयाफ्ता तबका उभरा है, उसने बहुत हक से इस डिस्कोर्स’ (विमर्श) को दिशा देना शुरू किया है। अशरफ या ऊंची जाति के नेताओं द्वारा अब तक जो नेतृत्व दिया गया उसे अगर बहुत शालीन भाषा में भी कहें तो वह सिर्फ मुसलमान के नाम पर किया गया एक सौदा मात्र था जिसमें मुस्लिम वोटों के बदले में या उपहारस्वरूप उस अशरफ नेता का मंत्रिमण्डल में स्थान सुरक्षित हो जाता है। पूरे मुस्लिम समाज को न कुछ मिलता है, न उनकी तरफ से वह काबीना मंत्री कभी कुछ मांगता है। हद से हद तक वही उर्दू और मदरसे। पहचानों को करना होगा युनाइट लिहाजा, भारतीय मुसलमान, जिनमें 85 प्रतिशत पसमांदा जातियों से हैं, अब 65 साल पुरानी वाली राजनीति को अलविदा कहने की स्थिति और मनोस्थिति की कगार पर खड़ा है। अब डेलीगेटेडप्रतिनिधित्व के बजाय वह नेतृत्व की बागडोर संभालना चाहता है। तब जबकि सपा, जनता दल और बसपा जैसी सामाजिक न्याय से जुड़ी पार्टियों में भी अगर मुसलमान के नाम पर आत्मकेन्द्रित अशरफ सैयदिसद्दीकी-पठान ही आते रहेंगे तो मुस्लिम कौम में लालू यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव जैसे नेता कहां से उभरेंगे? इसका सीधा सा हल है कि सामाजिक न्याय के एजेण्डे को क्रियान्वित करते हुए ऐसे सियासी दल वजूद में आएं जो मुसलमान-गैर मुसलमान पिछड़ा-पसमांदा दलित मोहाज बना सकें जिससे एक समान एजेण्डा की सभी ताकतें अपनी शक्ति और संख्याबल विभाजित किए बगैर देश की 85 प्रतिशत दलित पिछड़ा पसमांदा पहचानों को इंसाफ दिला सकें। आने वाले राजनीतिक परिदृश्य में परम्परागत मुस्लिम सियासत उत्तर भारत में एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ी है जिसका मकसद अपनी लीडरशिप में बृहत्तर समाज को साथ लेकर सियासत करना है न कि अब तक की आजमाई हुई पार्टियों में सीटों और टिकटों की तादाद पर सब्र कर पत्थरों से दूध निकालने की कोशिश।
- मुस्लिम सियासत को अब अपना लीडर तो चाहिए ही लेकिन पार्टी की सतह पर अपनी लीडरशिप भी चाहिए। तभी किसी आलाकमान का हुक्म बजाने के बजाय कौम की खिदमत, न्याय, उत्थान और प्रतिनिधित्व के सवालों पर मुसलमान का पक्ष रखा जा सकेगा।

No comments:

Post a Comment