हमें अपनी कुछ और खामियों पर भी नज़र डालनी होगी। हमने अपनी बुनियादी मुश्किलात को दरकिनार कर दिया है। और वक्त गुजर रहा है बेवजह की बातों में। मिसाल के तौर पर मस्जिद और मदरसों में सियासत देखने को मिल जाएगी। हमने इमामों और उलेमाओं की क़दर करना छोड़ दिया है। हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं जिन लोगों के घर में बच्चे और बीवी नहीं सुनते वो इमाम, मुअज़्ज़न और उलेमाओं पर हुक्म चलाते नजर आते हैं। अकसर मस्जिद और मदरसों में गुटबाज़ी दिखना आम बात हो गई है। अरे भाई ये लोग मज़हब का काम कर रहे हैं। इन्हें करने दो। जिसको क़ुरान और हदीस की सही जानकारी न हो उसे मज़हब के काम में दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन मज़हब से दूर भी नहीं रहना चाहिए। सही मायने में हम लोगों ने दीन का दामन नहीं थामा है। भाई लोगो उलेमा हमारे रहनुमा हैं। उनकी इज़्ज़त करना हमारा फर्ज़ है। इसलिए बेवजह की बातों से दिमाग हटाकर सही दिशा में ध्यान लगाओ। हमें जरूरत है सियासी तंजीम पर काम करने की। हमें ज़रूरत है एक इंक़लाब की। हमको भागीदारी के लिए देश में एक आंदोलन खड़ा करना होगा। उसके लिए तहरीक चलाएं, मुसलमानों को जगाने का काम करें। इस पर हमारा वक्त खर्च होगा तो हो सकता है कि भागीदारी के पेड़ की जड़े मज़बूत होने लगें। ये भी मुमकिन है कि पेड़, फल फूल गया तो फल हम खाएंगे। और तैयार होने में देर लगी तो हमारी नस्लों को फल ज़रूर मिल जाएगा। पहला काम है ज़मीन में पौधा लगाने का। बाद में उसे खाद और पानी देने का। इसके लिए हर गांव, मोहल्ले, क़स्बे, और शहरों में तंज़ीम कायम करनी होगी। जिसका मक़सद सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को संगठित करना हो।
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