Tuesday 10 April 2012

समय के साथ बदलते मुस्लिम चेहरे


उत्तर प्रदेश की राजनीति में तमाम मुस्लिम चेहरे मोर्चा संभाले हुए हैं. ये चेहरे सभी दलों में मौजूद हैं. कहीं ये शो पीस की तरह हैं तो कई जगह इनके कंधों पर वोट बैंक की ज़िम्मेदारी है. कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो मुस्लिम चेहरों को आगे करके अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए दाना डाल रहा हो. यह और बात है कि जितने सयाने राजनीतिक दल हो गए हैं, उससे कम चालाक मुस्लिम मतदाता भी नहीं हैं. इसीलिए वे सुन तो सबकी रहे हैं, लेकिन किसी को आश्वासन नहीं दे रहे हैं. वे जानते हैं कि उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करके नेताओं ने दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है. नेताओं की मौकापरस्त राजनीति के कारण ही मुस्लिम समुदाय आज भी समाज के साथ घुल-मिल नहीं पाया है. सरकारों की ग़लत नीतियों के कारण देश एवं प्रदेश में आतंकवाद बढ़ रहा है. अधिकांश मामलों में देखा यही जाता है कि आतंकवादी बाहर से आते हैं और देश के सीधे-सादे युवकों को बहला-फुसला और गुमराह कर उन्हें अपने साथ जोड़ लेते हैं. राजनीतिक दल इन बातों की अनदेखी करके झूठी सहानुभूति दिखाते हैं, जैसा कि आरक्षण के नाम पर बरगला कर किया जा रहा है. अब बात विभिन्न राजनीतिक दलों में मुस्लिम नेताओं या चेहरों की. क़रीब दो दर्जन ऐसे नाम उभर कर सामने आते हैं, जो अपनी कौम को किसी विशेष दल के पक्ष में लुभाने के लिए कोशिश कर रहे हैं, उनमें सलमान खुर्शीद, आजम खां, रशीद मसूद, डॉ. अयूब, शफीकुर्रहमान बर्क, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, क्रिकेटर से नेता बने अजहरुद्दीन, राशिद अल्वी, अहमद हसन, अम्मार रिजवी, जफर अली नकवी, हाजी याकूब कुरैशी, मुख्तार अब्बास नकवी, सलीम शेरवानी एवं अमीर रश्दी (उलेमा काउंसिल) आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं. ये वे नाम हैं, जो खुलकर किसी एक दल विशेष के पक्ष में हवा बनाने का काम कर रहे हैं. वहीं दूसरी तऱफ इमाम बुखारी जैसे धर्मगुरुओं और जफरयाब जिलानी जैसे बुद्धिजीवियों की भी कमी नहीं है, जो पर्दे के पीछे से किसी किसी दल का समर्थन कर रहे हैं.
अगर बात उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई मुस्लिम राजनीतिक परिवारों के रसातल में जाने की करें तो इसकी प्रमुख वजह मुस्लिम नेताओं द्वारा परिवारवाद को बढ़ावा देना है. हिंदू नेताओं के ठीक विपरीत मुस्लिम नेता अपने बच्चों को राजनीति में लाने की बजाय अन्य क्षेत्रों में भेजने को ज़्यादा तरजीह देते हैं. इसीलिए मुस्लिम राजनीतिक घराने समय के साथ हाशिए पर चले जाते हैं और उनकी जगह नए चेहरे और नए घराने ले लेते हैं.
इन तमाम मुस्लिम चेहरों के बीच कई नाम ऐसे भी हैं, जिनका कभी राजनीति में सिक्का चलता था, लेकिन इस चुनाव में वे कहीं नहीं दिखाई दे रहे हैं. इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं तेजतर्रार नेता आरिफ मोहम्मद खान, कभी संजय गांधी के क़रीबी रहे अकबर अहमद डंपी, उमराव जान जैसी फिल्म का निर्माण करके सुर्खियों में आने वाले मुजफ्फर अली (जो लखनऊ से केवल लोकसभा का चुनाव लड़े, बल्कि कई बार चुनाव प्रचार अभियान में भी दिखे), फिल्म अभिनेत्री शबाना आज़मी, राजा महमूदाबाद मोहम्मद आमिर मोहम्मद खां, बस्ती के मलिक मोहम्मद कमाल यूसुफ और मोहसिना किदवई जैसे नाम शामिल हैं. उक्त सभी नेता भले ही आज की मौकापरस्त राजनीति में अपने आपको फिट समझ रहे हों, लेकिन उनके मन का गुबार ठंडा नहीं दिखता. ऐसा ही कुछ पिछले दिनों आरिफ की बातों में देखने को मिला. आरिफ वैसे तो कई वर्षों से भाजपा में हैं, लेकिन वह पार्टी के लिए वोट मांगने कहीं नहीं जाते. इसका कारण भी वह कोई खास नहीं बताते. अपनी स्टाइल से राजनीति करने वाले आरिफ साहब का कभी सिक्का चलता था. वह सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे तो पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं के क़रीबी. अटल जी से प्रभावित आरिफ मोहम्मद खां ने कभी दलगत राजनीति नहीं की. यही वजह थी कि उन्हें राजनीति और मुस्लिम समाज में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे. आरिफ के बारे में एक घटना काफी चर्चा में रही थी. बात उस समय की है, जब प्रदेश में आपातकाल के बाद राम नरेश यादव के नेतृत्व में सरकार बनी थी और आरिफ मोहम्मद खां एवं मुख्तार अनीस उपमंत्री के रूप में उसमें शामिल थे. उस समय लखनऊ में शिया-सुन्नी दंगे से माहौल बिगड़ गया. उपमंत्री की हैसियत से आरिफ एवं मुख्तार अनीस को दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भेजा गया. वहां दोनों में झगड़े जैसे हालात पैदा हो गए. आरिफ को लगता था कि सुन्नियों पर अत्याचार हुआ है, जबकि मुख्तार अनीस शियाओं पर अत्याचार की बात कह रहे थे. आरिफ सुन्नी बिरादरी से ताल्लुक रखते थे, उन्हें लगा कि सुन्नियों पर अत्याचार हुआ है, लेकिन वह अपना पक्ष मज़बूती से नहीं रख पा रहे हैं. इसके लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानते हुए उन्होंने विधानसभा में ही अपना इस्ती़फा दे दिया.
लंबे समय तक राजनीति में रहने के बाद भी वह वहां कभी सहज नहीं दिखे. उन्होंने राजनीति में अपने आपको अनफिट देखकर सारा ध्यान लेखन में लगाना शुरू कर दिया. उनके लेख विभिन्न समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में अक्सर दिखाई देते हैं, वही उनकी पहली किताब टेक्स्ट इन कांटेक्स्ट 2001 में बेस्ट सेलर रही. आरिफ मोहम्मद खां पिछले दिनों अलीगढ़ में दिखाई दिए. वह एक पारिवारिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे. भले ही वह आजकल राजनीति से दूर हों, लेकिन उनके चेहरे पर मुसलमानों के नाम पर हो रही वोट बैंक की राजनीति का मलाल साफ दिखा. पिछड़े मुस्लिमों को आरक्षण के मामले पर केंद्रीय क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद के बयान से नाराज़ आरिफ ने दो टूक कहा कि उनका बयान बेतुका और मुसलमानों को भरमाने वाला है. 70 प्रतिशत पिछड़े मुसलमानों को पहले से ही आरक्षण का फायदा मिल रहा है. उन्होंने कहा कि पसमांदा मुसलमानों को अगर आरक्षण मिला है तो मंडल आयोग की वजह से. काका कालेलकर या मंडल आयोग के आगे कोई मुस्लिम नेता अपनी कौम के लिए आरक्षण मांगने नहीं गया था. उन्होंने खुर्शीद से सवाल किया कि जब 27 फीसदी में मुसलमानों को आरक्षण मिल रहा है तो फिर अब वह किसे आरक्षण देने की बात कर रहे हैं.
अगर बात उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई मुस्लिम राजनीतिक परिवारों के रसातल में जाने की करें तो इसकी प्रमुख वजह मुस्लिम नेताओं द्वारा परिवारवाद को बढ़ावा देना है. हिंदू नेताओं के ठीक विपरीत मुस्लिम नेता अपने बच्चों को राजनीति में लाने की बजाय अन्य क्षेत्रों में भेजने को ज़्यादा तरजीह देते हैं. इसीलिए मुस्लिम राजनीतिक घराने समय के साथ हाशिए पर चले जाते हैं और उनकी जगह नए चेहरे और नए घराने ले लेते हैं.

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