Sunday 22 April 2012

तालीम - बच्चों का पैदाइशी हक़ है

आज हिंदोस्तानी मुसलमानों की पहचान ग़ुरबत और जहालत से की जाती है। अक्सरीयत ग़ैर पढ़ी लिखी और बेरोज़गार है। शायद यही बेरोज़गारी और ग़ुरबत उन मुस्लिम नौजवानों को ग़लत राह इख़्तियार करने पर मजबूर करती है। और पूरी क़ौम की बदनामी का सबब बनती है।
तालीम किसी भी क़ौम की तरक़्की और बक़ा के लिए सब से ज़रूरी चीज़ है, और आज की दुनिया में जिस का सारा दारोमदार ही इलम--मारिफ़त और साईंस और टैक्नालोजी पर है, बगै़र तालीम के कोई भी क़ौम कैसे तरक़्की कर सकती है?
ये बात काबिल--ज़िकर है कि अमरीका में एक तादाद के लिहाज़ से बहुत छोटी सी क़ौम वहां की इक़तिसादीयात और मुख़्तलिफ़ अहम सनअतों पर क़ाबिज़ है। हाली वुड की फ़िल्म इंडस्ट्री पर उस का राज है। न्यूज़ चैनल्स और अख़बारात उन के हैं। आख़िर ऐसा क्यों है?
 इस में कोई शक नहीं कि ये उन की आला तालीमी क़ाबिलीयत और बे लगन मेहनत का नतीजा है।
मैं ये नहीं कहता कि किसी ख़ास क़ौम की इत्तिबा की जाए या उन से मुशाबहत इख़्तियार की जाए। कहने का मक़सद सिर्फ ये है कि अगर हिंदोस्तानी मुसलमानों को तरक़्की करना है और हिंदोस्तान की इक़तिसादी सरगर्मीयों का फ़आल हिस्सा बनना है तो उन के बच्चों और बच्चियों को आला तालीम हासिल करना ही होगा। आज के तालीम याफ़ता बच्चे कल अपने ख़ानदान और सोसाइटी की ज़िंदगीयां संवार सकते हैं।
बहुत से मुसलमान अपनी इक़तिसादी हालत का बहाना करके अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, उन का कहना है कि इन के पास बच्चों को पढ़ाने का पैसा नहीं है, ये काफ़ी हद तक ग़लत बात है। हम सब ये बात जानते हैं कि हुकूमत की तरफ़ से गांव गांव और शहर शहर स्कूलों का जाल बिछा हुआ है, जहां सिर्फ तालीम ही नहीं मिलती साथ साथ वज़ीफ़ा भी दिया जाता है। ये भी एक कड़वा सच्च है कि कितने वालदैन बच्चों को सिर्फ वज़ीफ़े की ग़रज़ से स्कूल भेजते हैं और उन्हें अपने बच्चों की तालीम या कारकर्दगी से कोई ख़ास सरोकार नहीं होता। लिहाज़ा "जैसी नियत वैसी बरकत"
आज बच्चों की तालीम की ख़ातिर वालदैन को क़ुर्बानियां देनी होंगी। उन्हें अपने ज़रूरी और रोजमर्रा के इख़राजात में कमी करके तालीमी अग़राज़ में ख़र्च करना होगा। इन का लगाया हुआ एक एक पैसा घर, ख़ानदान और अगली नस्लों की ज़िंदगीयां संवार देगा। ये सब से बेहतर इंवेस्टमेंट होगा।
वालदैन ये भी शिकायत करते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई अच्छी नहीं होती लिहाज़ा ऐसे स्कूलों में बच्चों को भेजने से कोई फ़ायदा नहीं। ये बात बिलकुल ग़लत है। सब से पहले तालीम का मसला है और अच्छी या ख़राब तालीम की बात तो बाद में आती है। कितने ऐसे लोग हैं जिन्हों ने सरकारी स्कूलों में टाट पर बैठ कर पढ़ा और अपने मैदानों में कामयाब हुए और नाम कमाया।
हिंदोस्तानी मुसलमानों की ग़ुरबत, जहालत और पिछड़ेपन से छुटकारा पाने की राह में तालीम सब से पहला क़दम है। अगर हम तालीम की एहमीयत को आज नहीं समझेंगे तो मुस्तक़बिल हमारे बच्चों के हाथ से निकल जाएगा, जिस तरह हाल में हम पिछड़े हैं इसी तरह  मुस्तक़बिल में भी ग़रीब नादार और पिछड़े ही रहेंगे।
आज ज़रूरत है कि आप ख़ुद भी अपने बच्चों को स्कूल भेजें और दूसरों को भी मजबूर करें कि वो अपने बच्चों को तालीम दिलाएं। ये उन का पैदाइशी हक़ है। बच्चों को तालीम दिलाकर उन पर बहुत बड़ा एहसान करेंगे। ये आप सिर्फ अपने तक महदूद ना रखें, इस की तब्लीग़ करें, लोगों को बावर कराऐं, उन को तालीम की अहमीयत समझाएं और बताएं कि बच्चों को जाहिल रख कर उन पर और सारे मुआशरे पर ज़ुल्म ना करें। कल क़यामत में उन्हें जवाब देना होगा।

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