Tuesday 10 April 2012

भारत के मुसलमानों का भविष्य


ताजा जनगणना के मुताबिक भारत में करीब पन्द्रह करोड़ मुसलमान रहते हैं। पूरी दुनिया में मुसलमानों की इस से ज्यादा आबादी सिर्फ पाकिस्तान और इंडोनेशिया में है, दुनिया के मुस्लिम मुमालिक में से किसी में भी इतने मुसलमान नहीं हैं, मध्य एशिया में सबसे बड़ी आबादी वाले मुल्क इजिप्ट में भी सिर्फ आठ करोड़ लोग रहते हैं, और उनमें भी करीब दस प्रतिशत गैर-मुसलमान हैं, इसलिए यह बात बड़ी अजीब लगती है कि हिंदुस्तान के मुसलमान अपने आप को अल्पसंख्यक अक्लियत यानी माइनारिटी मानते हैं। अगर हिंदुस्तान के सभी मुसलमान अलग मुल्क बना लें तो यह दुनिया में सातवीं सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क होगा। कहने का आशय यह नहीं है कि मुसलमानों को भारत से अलग होने की सोचना चाहिए। हिंदुस्तान के मुसलमान तो दाल में नमक की तरह मिले हैं, वे कभी अलग हो ही नहीं सकते, भारत में उनकी तादाद पर यहाँ गौर सिर्फ इसलिए किया गया है कि एक सवाल पूछा जा सके, आखिर क्या वजह है कि इतनी बड़ी संख्या के बावजूद भारत के मुसलमानों को अपनी शक्ति का एहसास नहीं हो पाता है?
इतिहासकार बताएँगे कि इसके कई वजूहात हैं, भारत के मुसलमानों की मायूसी की शुरुआत हुई अट्ठारहवीं सदी में जब औरंगजेब की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने धीरे-धीरे हिंदुस्तान की हुकूमत मुगलों से छीन ली। 1857 की गदर की शिकस्त से मुसलमानों का मनोबल ऐसा टूटा कि उनमें से ज्यादातर लोगों ने अगले नब्बे सालों तक अपने आप को भारतीय स्वाधीनता संग्राम से बाहर रखा। मुसलमानों को दूसरा झटका तब लगा जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का सब्ज-बाग दिखा कर उनके बीच गहरा भेद खड़ा कर दिया और करोड़ों मुसलमानों को 1947 में भारत से अलग कर दिया। उस वक्त यहाँ बच गए मुसलमानों पर देशद्रोही होने का जो दाग़ लगा उसको अपने दामन से उनके वंशज आज तक नहीं छुड़ा पाए हैं।
क्योंकि जो बड़े-बड़े मुस्लिम लीडरान थे उनमें ज्यादातर तकसीम के वक्त पाकिस्तान चले गए, इसलिए हिंदुस्तान की मुस्लिम कौम के पास नेता ही नहीं रह गए। आजादी के बाद मुसलमानों के जो नेता उभरे भी वे कांग्रेस पार्टी के बरगद के नीचे मुसलसल मिट्टी में मिलते रहे। कांग्रेस के शासन में भारत भर में लगातार साम्प्रदायिक दंगों में हजारों मुसलमानों की जानें गईं। लेकिन फिर भी मुसलमान कांग्रेस को न छोड़ पाए क्योंकि उनमें मुस्लिम विरोधी और फासीवादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आतंक के साथ-साथ पुलिस, न्यायपालिका और अफसरशाही का भी आतंक बैठ चुका था। 1992 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद मुसलमानों को समझ आया कि कांग्रेस पार्टी भी उनकी आबरू नहीं बचा सकती। लेकिन इस एहसास से मुसलमानों में और मायूसी छा गई कि जब कांग्रेस ही बेनकाब हो गई तो अब उनका रहनुमा कौन?
2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम कौम के नरसंहार ने हिंदुस्तान के मुसलमानों की कमर ही तोड़ दी। उसी दौरान देश भर में सिलसिला तेज हुआ नौजवान मुसलमानों को (और कुछ उम्रदराज मुसलमानों को भी) दहशतगर्द यानी आतंकवादी बता कर गिरफ्तार करने का, बीते दस सालों में सैकड़ों मुसलमानों को देश भर में झूठे इलजामात में जेल की हवा खानी पड़ी है। ढाई-तीन सौ अब भी जेल में होंगे, चैंका देने वाली बात यह है की उनके खिलाफ पुलिस कभी सबूत ही नहीं सामने लाती। अगर कुछ होता है तो सिर्फ उन मुजरिमों का कथित इकबालिया बयान, जो दरिंदा पुलिस उन्हें भारी यातना देकर उनसे लिखवाती है या सिर्फ सादे कागज पर उनके दस्तखत लेकर अपनी मर्जी से लिख लेती है।
यही नहीं, मुकदमे के दौरान यह साफ जाहिर हो जाता है कि सरकारी गवाह झूठे और पेशेवर हैं, क्योंकि गिरफ्तारी वहाँ हुई ही नहीं जहाँ पुलिस बताती है, बल्कि मुजरिम वारदात के वक्त दरअसल कहीं और था, वगैरह। कई केस तो ऐसे हैं कि मुजरिम की गिरफ्तारीसे पहले उसके घरवालों ने बाकायदा अदालत, कलेक्टर और पुलिस में दरख्वास्त दी हुई है कि उनके बेटे, भाई, पति या पिता को पुलिस उठा कर ले गई है और उनको डर है कि या तो उसका फर्जी एनकाउंटर कर दिया जाएगा या आतंक के झूठे केस में फँसा दिया जाएगा। लेकिन यह सब जानते-बूझते हुए भी देश भर में निचली अदालतें इन मुजरिमों को जमानत तक नहीं देने को तैयार होती हैं। उल्टे उन्हें लम्बे समय तक पुलिस हिरासत में भेज देती हैं और सालों-साल मुकदमे चलाती हैं। कम ही लोग खुशकिस्मत होते हैं जो निचली अदालत से बाइज्जत बरी हो पाते हैं। वरना ज्यादातर को हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट से इंसाफ मिलने का लम्बा इंतजार करना पड़ता है। लेकिन सच तो यह है कि जो एक बार फँस गया, वह जिन्दगी भर के लिए गया। अक्सर देखा गया है कि पहली गिरफ्तारी के कुछ हफ्तों में ही अलग-अलग राज्यों की पुलिस एक मुजरिम को तमाम मुकदमों में फँसा देती है। इनमें से कई मुकदमे ऐसे होते हैं जो पहले से उन राज्यों की अदालत में चल रहे होते हैं, और उन वारदातों में इस नए मुजरिम के शुमार होने की एकदम नई कहानी गढ़ दी जाती है। पाठकों को याद होगा कि 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के मुकदमे में ठीक ऐसे ही दो उन मुसलमानों को फँसाया गया था जो वारदात से पहले ही उत्तर प्रदेश में एक दूसरे मुकदमे में कैद थे (मुंबई की अदालत ने उनको छोड़ दिया लेकिन उत्तर प्रदेश में चलाए जा रहे मुकदमे के खत्म होने के कोई आसार नहीं दिखते.) अगर हर मुकदमे में छूट भी गए तो भी इन तमाम मुजरिमों पर दोबारा गिरफ्तारी का साया हमेशा मँडराता रहता है। आए दिन पुलिस वाले उनको थाने बुला लेते हैं और घंटों परेशान करते हैं। ऐसा खासतौर पर तब होता है जब किसी बम धमाके में मासूम जानें जाती हैं और अखबार और टी0वी0 वाले चिल्लाने लगते हैं कि पुलिस निकम्मी है। कई मुजरिम तो ऐसे हैं जो आपस में भाई-भाई हैं, बाप-बेटा हैं, चाचा-भतीजा हैं। कई परिवारों से दो से ज्यादा लोग भी मुजरिम बनाए गए हैं। कई ऐसे हैं जिनको पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार किया क्योंकि उनका भाई या पिता या बेटा जिसे पुलिस तलाश कर रही थी, फरार हो गया, और जब एक बार वह घर बैठा मासूम पुलिस के चंगुल में आ गया तो फिर वह भी नामजद हो गया। इन दस सालों में पुलिस द्वारा फर्जी एनकाउंटर की मुहिम भी तेज हुई। जब तक गुजरात में सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर में पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार नहीं किया गया था तब तक अकेले उसी राज्य में डेढ़ दर्जन से ज्यादा मुसलमानों को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था। यह तो भूल ही जाइए कि इन सभी पुलिसिया हत्याओं के लिए किसी को शक हुआ होगा। महाराष्ट्र की नौजवान मुसलमान लड़की इशरत जहाँ की नृशंस हत्या अहमदाबाद के पुलिसवालों ने 2004 में की थी, लेकिन अब तक उसके घरवालों को इन्साफ नहीं मिला है। यह कहानी देश भर में दोहराई गई है।
कांग्रेस-शासित आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में भी मासूम मुसलमानों के फर्जी एनकाउंटर और बेबुनियाद गिरफ्तारियाँ बदस्तूर होती रही हैं। प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हिन्दुओं का वोट भारतीय जनता पार्टी को न चला जाए इस डर से कांग्रेस पार्टी की सरकारें भी मुसलमानों को आतंकवादी बता कर गिरफ्तार करती रहती हैं। फिर, आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की दुकानें भी खूब जम कर चलती हैं। करोड़ों का असलहा खरीदा जाता है, नई-नई एजेंसियाँ कायम की जाती हैं जिनमें पुलिस वालों को और नौकरी के रास्ते दिखते हैं। ऐसे कानून बनाए जाते हैं जो पुलिस को दिए इकबालिया बयान को सबूत मान लेते हैं और मुजरिम के थोड़े-बहुत अधिकार भी खत्म कर देते हैं। गिरफ्तारियाँ करने वाले पुलिस वालों को इनाम मिलता है और उनकी तरक्की की जाती है। आतंकवाद में फँसाने का भय दिखा कर पुलिस घर-घर मुसलमानों से हफ्ता वसूली करती है और तरह-तरह के फायदे उठाती है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश के मुस्लिम समाज पर इतना बड़ा खतरा पैदा हुआ तो उसके प्रति कौम का क्या रुख रहा? जबकि यह साफ हो गया है कि मुसलमानों को जानबूझ कर एक सोची समझी साजिश के तहत दाग़दार किया जा रहा है .......और इस घिनौनी साजिश में पूरी सरकारी व्यवस्था और लगभग सभी राजनैतिक दल शामिल हैं तो मुस्लिम लीडरान और तंजीमों ने इससे लड़ने के लिए क्या कदम उठाए? इसका अफसोसनाक जवाब है ...कुछ भी नहीं। देखने में यह आया है कि इस चुनौती से शिद्दत से लड़ने के लिए मुस्लिम समाज संगठित होने से लगातार कतराता रहा है। अपनी रहनुमाई का जो सेहरा मुसलमान पहले कांग्रेस पार्टी के सर बाँधते थे वह सेहरा अब एन.जी.ओ के सर बाँधा जाने लगा है। मुसलमानों को खुद पर आज भी यकीन नहीं है, इसलिए वे बार-बार मानवाधिकार संगठनों, एक्टिविस्टों, वकीलों और अदालतों के चक्कर काटते हैं।
गोधरा हो या आजमगढ़, हैदराबाद हो या मालेगाँव, मुसलमान अपनी बेचारगी पर अफसोस करते पाए जा सकते हैं। जिनके बच्चे या घर वाले जेल में हैं उनका जीवन तो खैर नर्क हो ही चुका है, लेकिन उनका साथ देने के लिए भी सामाजिक तौर पर न कोई सोच बन पाई है और न ही कोई मुहिम खड़ी हो पाई है। यह जरूर है की जमीअत उलमा-ए-हिंद, जमात-ए-इस्लामी और अन्य कौमी तंजीमों से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन अभागे परिवारों को गुप्त तौर पर मदद देते रहते हैं, लेकिन यह इमदाद भी ज्यादातर वकील और कोर्ट-कचेहरी के सिलसिले से ही होती है। जिस मुसलमान परिवार का सदस्य गिरफ्तार होता है उसके यहाँ रिश्तेदार भी आना बंद कर देते हैं, क्योंकि उनको डर रहता है कि उन्हें भी पुलिस केस में फँसा देगी। वे मोहल्ले वाले हिम्मती होते हैं जो ऐसे परिवारों की हौसला अफजाई के लिए उनका साथ देते हैं। आपसी बातचीत में हर मुसलमान यह मानता है कि आतंकवाद की यह छद्म कहानी सिर्फ मुसलमानों को दबा कर रखने के लिए गढ़ी गई है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर कोई भी मुसलमान या मुस्लिम संगठन इस बात को कहने के लिए और इस मुल्क के निज़ाम को चुनौती देने के लिए तैयार नहीं होता है। बल्कि सभी आस लगाए रहते हैं कि देश भर की अदालतों में चल रहे मुकदमों में कभी तो इन्साफ मिलेगा, और यह सोच कर वे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सर घुसाए बैठे रहते हैं। आपको किसी भी शहर में उभरते जवान मुसलमान नेता मिल जाएँगे जो कांग्रेस या बी.जे.पी. या समाजवादी पार्टी या बसपा या ए.आई.ए.डी.एम.के या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या राजद या किसी भी दल में कर्मठता से काम कर रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों पर हो रहे जुल्म से लड़ने के लिए उनकी राजनीति में कोई जगह नहीं है। लखनऊ में मोहम्मद शुऐब, उज्जैन में नूर मोहम्मद और भोपाल में परवेज आलम जैसे इक्का-दुक्का मुसलमान वकीलों को छोड़ कर ज्यादातर मुसलमान वकील भी खुलकर सामने आने से कतराते हैं। जिस तरह से शुऐब साहब और नूर मोहम्मद साहब को बजरंगदल के कार्यकर्ताओं ने सरेआम पीटा, और जिस तरह फरवरी 2010 में मुंबई के निडर वकील शाहिद आज़मी की गोली मार कर हत्या कर दी गई, उस से मुसलमानों के हौसले और भी पस्त हो गए।
कांग्रेस-शासित आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में भी मासूम मुसलमानों के फर्जी एनकाउंटर और बेबुनियाद गिरफ्तारियाँ बदस्तूर होती रही हैं। प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हिन्दुओं का वोट भारतीय जनता पार्टी को न चला जाए इस डर से कांग्रेस पार्टी की सरकारें भी मुसलमानों को आतंकवादी बता कर गिरफ्तार करती रहती हैं। फिर, आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की दुकानें भी खूब जम कर चलती हैं। करोड़ों का असलहा खरीदा जाता है, नई-नई एजेंसियाँ कायम की जाती हैं जिनमें पुलिस वालों को और नौकरी के रास्ते दिखते हैं। ऐसे कानून बनाए जाते हैं जो पुलिस को दिए इकबालिया बयान को सबूत मान लेते हैं और मुजरिम के थोड़े-बहुत अधिकार भी खत्म कर देते हैं। गिरफ्तारियाँ करने वाले पुलिस वालों को इनाम मिलता है और उनकी तरक्की की जाती है। आतंकवाद में फँसाने का भय दिखा कर पुलिस घर-घर मुसलमानों से हफ्ता वसूली करती है और तरह-तरह के फायदे उठाती है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश के मुस्लिम समाज पर इतना बड़ा खतरा पैदा हुआ तो उसके प्रति कौम का क्या रुख रहा? जबकि यह साफ हो गया है कि मुसलमानों को जानबूझ कर एक सोची समझी साजिश के तहत दाग़दार किया जा रहा है .......और इस घिनौनी साजिश में पूरी सरकारी व्यवस्था और लगभग सभी राजनैतिक दल शामिल हैं तो मुस्लिम लीडरान और तंजीमों ने इससे लड़ने के लिए क्या कदम उठाए? इसका अफसोसनाक जवाब है ...कुछ भी नहीं। देखने में यह आया है कि इस चुनौती से शिद्दत से लड़ने के लिए मुस्लिम समाज संगठित होने से लगातार कतराता रहा है। अपनी रहनुमाई का जो सेहरा मुसलमान पहले कांग्रेस पार्टी के सर बाँधते थे वह सेहरा अब एन0जी00 के सर बाँधा जाने लगा है। मुसलमानों को खुद पर आज भी यकीन नहीं है, इसलिए वे बार-बार मानवाधिकार संगठनों, एक्टिविस्टों, वकीलों और अदालतों के चक्कर काटते हैं।
गोधरा हो या आजमगढ़, हैदराबाद हो या मालेगाँव, मुसलमान अपनी बेचारगी पर अफसोस करते पाए जा सकते हैं। जिनके बच्चे या घर वाले जेल में हैं उनका जीवन तो खैर नर्क हो ही चुका है, लेकिन उनका साथ देने के लिए भी सामाजिक तौर पर न कोई सोच बन पाई है और न ही कोई मुहिम खड़ी हो पाई है। यह जरूर है की जमीअत उलमा-ए-हिंद, जमात-ए-इस्लामी और अन्य कौमी तंजीमों से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन अभागे परिवारों को गुप्त तौर पर मदद देते रहते हैं, लेकिन यह इमदाद भी ज्यादातर वकील और कोर्ट-कचेहरी के सिलसिले से ही होती है। जिस मुसलमान परिवार का सदस्य गिरफ्तार होता है उसके यहाँ रिश्तेदार भी आना बंद कर देते हैं, क्योंकि उनको डर रहता है कि उन्हें भी पुलिस केस में फँसा देगी। वे मोहल्ले वाले हिम्मती होते हैं जो ऐसे परिवारों की हौसला अफजाई के लिए उनका साथ देते हैं। आपसी बातचीत में हर मुसलमान यह मानता है कि आतंकवाद की यह छद्म कहानी सिर्फ मुसलमानों को दबा कर रखने के लिए गढ़ी गई है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर कोई भी मुसलमान या मुस्लिम संगठन इस बात को कहने के लिए और इस मुल्क के निज़ाम को चुनौती देने के लिए तैयार नहीं होता है। बल्कि सभी आस लगाए रहते हैं कि देश भर की अदालतों में चल रहे मुकदमों में कभी तो इन्साफ मिलेगा, और यह सोच कर वे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सर घुसाए बैठे रहते हैं। आपको किसी भी शहर में उभरते जवान मुसलमान नेता मिल जाएँगे जो कांग्रेस या बी0जे0पी0 या समाजवादी पार्टी या बसपा या ए0आई00डी0एम0के0 या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या राजद या किसी भी दल में कर्मठता से काम कर रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों पर हो रहे जुल्म से लड़ने के लिए उनकी राजनीति में कोई जगह नहीं है। लखनऊ में मोहम्मद शुऐब, उज्जैन में नूर मोहम्मद और भोपाल में परवेज आलम जैसे इक्का-दुक्का मुसलमान वकीलों को छोड़ कर ज्यादातर मुसलमान वकील भी खुलकर सामने आने से कतराते हैं। जिस तरह से शुऐब साहब और नूर मोहम्मद साहब को बजरंगदल के कार्यकर्ताओं ने सरेआम पीटा, और जिस तरह फरवरी 2010 में मुंबई के निडर वकील शाहिद आज़मी की गोली मार कर हत्या कर दी गई, उस से मुसलमानों के हौसले और भी पस्त हो गए।
अजित शाही

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