Tuesday 10 April 2012

उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोगः खर्चा रूपया, काम चवन्नी


अल्पसंख्यक, एक ऐसा शब्द, जिसका इस्तेमाल शायद राजनीति में सबसे ज़्यादा होता है. सत्ता में आने से पहले और सत्ता में आने के बाद बस इस शब्द और इस समुदाय का इस्तेमाल ही होता आया है. इसके अलावा जो कुछ भी होता है, वह स़िर्फ दिखावे के लिए होता है. मसलन, उत्तर प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग. चौथी दुनिया को मिले दस्तावेज के मुताबिक़, यह आयोग पिछले दो सालों के दौरान लाखों रुपये डकारने के बाद मात्र 27 मामले निस्तारित कर सका. दस्तावेज में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि इन दो सालों में आयोग के पास जितनी भी शिकायतें आईं, उनमें से 139 मामलों में इसने सम्मन जारी किए. पिछले दो सालों में आयोग अपने पास आईं शिकायतों में से महज 27 का ही निस्तारण कर सका. ज़्यादातर मामलों में सुनवाई जारी है.
अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर बना राज्य अल्पसंख्यक आयोग आ़खिर किसका कल्याण कर रहा है, जब इस बात की पड़ताल की गई तो पता चला कि लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद यह अल्पसंख्यक समुदाय की शिकायतों का निपटारा समय पर नहीं कर पा रहा है. फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार स़फेद हाथी साबित हो रहे इस आयोग में बदलाव के लिए नहीं सोच रही है. आ़खिर क्यों? इस सवाल का जवाब जानना उत्तर प्रदेश के करोड़ों अल्पसंख्यकों के लिए बहुत ज़रूरी है.
दरअसल, आंकड़े स़िर्फ आंकड़े भर नहीं है, बल्कि वे उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग की प्रासंगिकता और अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर सरकार की संजीदगी की कहानी भी बयान करते हैं. इस आयोग में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष और 9 सदस्य हैं. यानी कुल मिलाकर आयोग में 12 लोग हैं. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक़, आयोग के अध्यक्ष को प्रति माह 40 हज़ार रुपये, उपाध्यक्ष को 35 हज़ार रुपये और हर सदस्य को 25 हज़ार रुपये मानदेय का भुगतान किया जाता है. इस तरह पिछले दो सालों में इन माननीय सदस्यों, उपाध्यक्षों और अध्यक्ष को करीब 54 लाख रुपये मानदेय के तौर पर दिए गए. इसके अलावा इनके यात्रा भत्ता के रूप में भी आम आदमी की कमाई का एक हिस्सा (3 लाख 37 हज़ार रुपये) खर्च हुए. ध्यान देने की बात यह है कि जो पैसा इन लोगों को दिया गया, वह दरअसल जनता का ही पैसा है. वह पैसा, जो आम आदमी टैक्स के रूप में सरकार को देता है. इस लिहाज़ से इस एक-एक रुपये का पूरा-पूरा फायदा आम आदमी को मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.
आयोग की कार्यशैली कुछ ऐसी है कि जब कभी इसके पास कोई शिकायत आती है तो आयोग के सदस्य संबंधित व्यक्ति और जगह तक पहुंच कर शिकायत की जांच करते हैं. आयोग के अध्यक्ष के निर्देश के मुताबिक़, आयोग के सदस्य राज्य के सभी जनपदों में भ्रमण कर अल्पसंख्यक वर्ग की समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं. ज़ाहिर है, सदस्यों के पास कहीं भी आने-जाने के संबंध में कोई बाध्यता नहीं है. अक्टूबर 2010 तक के आंकड़ों के मुताबिक़, आयोग 139 मामलों में सम्मन जारी करता है. फिर भी क्या कारण है कि आयोग में शामिल 12 लोग मिलकर दो साल में स़िर्फ 27 शिकायतों का ही निस्तारण कर पाते हैं. आ़खिर आयोग की इस सुस्ती की वजह क्या है?
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अल्पसंख्यक वर्ग की आबादी भी खासी बड़ी है. तो क्या उनके पास कोई समस्या या शिकायत नहीं है या फिर वे अपनी समस्या लेकर आयोग के पास नहीं जाते. सवाल यह भी है कि क्या आयोग तभी कार्रवाई करेगा, जब उसके पास कोई शिकायत लेकर पहुंचेगा. पूरे देश में अल्पसंख्यकों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति कैसी है, यह बात किसी से छुपी नहीं है. सच्चर कमेटी से लेकर रंगनाथ आयोग तक इस वर्ग की आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति पर अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुका है. ऐसे में क्या आयोग इस बात का इंतजार करेगा कि कोई उसके पास शिकायत लेकर आए. क्या आयोग मीडिया में आई खबरों के आधार पर स्वत: कार्रवाई नहीं कर सकता.
दो सालों में 54 लाख रूपये मानदेय पर खर्च
दो सालों में यात्रा भत्ता 3 लाख 37 हजार रूपये
दो सालों में हज 27 शिकायतों का निस्तारण

                                                                                                                                               www.chauthiduniya.com

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