Sunday 22 April 2012

शिक्षा के बिना खत्म नहीं होगा मुसलमानों का पिछड़ापन


मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा, हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं. इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है. या शायद करना नहीं चाह रहा हैसब को मालूम है कि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा. दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमानों की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह गरीब है, बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनातेसच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा महत् दिया गया है. रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना महत् नहीं देते जितना देना चाहिए. दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं. उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं, उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए.
इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है. दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है. एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की. उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता. उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चों के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया. कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे. एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आईआईटी में पढ़ रही हैं. हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं. इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पर लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं. हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगे, लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है. दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है. जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं. ज़रूरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है.
राज्यसभा के उपाध्यक्ष के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं, लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी. हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है. उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया. बताने लगे कि 1964 में बंगलोर शहर में मुसलमानों का कोई कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थेउन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में 1967  में एक कालेज शुरू कर दिया. एक टिन शेड में शुरू हुआ  यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है.शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये, मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआलेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया. आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला. आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है. पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है. बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है.
के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया. कुल सात सौ सात रुपये जमा हुए. गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया. सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया. डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था, उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया. उसने खुश होकर एक लाख रुपये का दान देने का वादा किया. उस एक लाख रुपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया. 100 बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया. फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे. सरकार से केवल मदद मिली. कर्नाटक के उस वक़्त के मुख्यमंत्री राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है. कहने का  तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती है. हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
लेखक शेष नारायण सिंह देश के जाने-माने पत्रकार और स्तंभकार हैं. एनडीटीवी समेत कई चैनलों-अखबारों में काम कर चुके हैं. विभिन्न अखबारों में नियमित रूप से लिखते हैं. कई चैनलों पर बहसों विश्लेषणों में शरीक होते हैं. वेब माध्यम के चर्चित चेहरे हैं.

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